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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - ४, बौद्धदर्शन
॥ अथ प्रथमोऽधिकारः ॥ ॥ बौद्ध दर्शन ॥
अथ यथोद्देशस्तथा निर्देश इति न्यायादादौ बौद्धमतमाचष्टे - अब "यथा उद्देश: तथा निर्देश:" अर्थात् जिस अनुसार उद्देश किया गया हो उस अनुसार निर्देश करना चाहिए। इस न्याय से दर्शनो के उद्देश क्रम में बौद्धदर्शन का प्रथम निर्देश होने से बौद्धदर्शन को कहते है ।
(मूल श्लो०) तत्र बौद्धमते तावद्देवता सुगतः किल । चतुर्णामार्यसत्यानां दुःखादीनां प्ररूपकः ।।४।।
श्लोकार्थ : वे दर्शनो में, बौद्धमत में दुःखादि चार आर्यसत्य के प्ररुपक सुगत देवता है ।
तत्रशब्दो निर्धारणार्थः, तावच्छब्दोऽवधारणे । तेषु दर्शनेष्वपराणि दर्शनानि तावत्तिष्ठन्तु, बौद्धमतमेव प्रथमं निर्धार्योच्यत इत्यर्थः । अत्र चादी बौद्धदर्शनोपलक्षणार्थं मुग्धशिष्यानुग्रहाय बौद्धानां लिङ्गवेषाचारादिस्वरूपं प्रदर्श्यते । चमरो मौण्ड्यं कृत्तिः कमण्डलुश्च लिङ्गम् । A-54 धातुरक्तमागुल्फं परिधानं वेषः । शौचक्रिया बह्वी । “A - 55 मृद्वी शय्या प्रातरुत्थाय पेया भक्तं मध्ये पानकं चापराह्ने । द्राक्षाखण्डं शर्करा चार्धरात्रे मोक्षश्चान्ते शाक्यपुत्रेण दृष्टः ।।१।। A- Song भोयणं भुचा मणुन्नं सयणासणं । मणुन्नमि अगारंमि मणुन्नं जायए मुणी । । २ । । ”
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भिक्षायां पात्रे पतितं सर्वं शुद्धमिति मन्वाना 4-57 मांसमपि भुञ्जते, मार्गे च जीवदयार्थं A-58 प्रमृजन्तो व्रजन्ति । ब्रह्मचर्यादिस्वकीयक्रियायां च भृशं दृढतमा भवन्ति । इत्यादिराचारः ।
टीकाका भावानुवाद :
श्लोक में “तत्र” शब्द निर्धारण अर्थ में है । " तावद्" शब्द अवधारण में है । (भावार्थ यह है कि) वे दर्शनो में अपरदर्शन अभी एक तरह रहे, बौद्धमत ही प्रथम निर्धार करके कहा जाता है । यहां प्रारम्भ में बौद्धदर्शन के लिंग, वेष- आचारादि स्वरुप (३१) उपलक्षणार्थ को मुग्ध शिष्य के अनुग्रह के लिए बताया गया है। वह इस अनुसार है – “चामर का धारण करना, मस्तक पर मुंडन कराना, बैठने के लिए मृगचर्म का आसन और कमण्डलु को धारण करना, वह लिंग है । घुटनो तक लाल रंग का वस्त्र पहनना वह वेष
(३१) वेषादि में ही (बौद्ध) धर्म नहीं रहा, परन्तु वह वेषादि धर्म का कारण है । तत् तत् धर्मसंबंधी विचारो को लाने के लिये माध्यम आचारादि है। इससे उपलक्षण से वेषादि के ज्ञान के साथ साथ उसके धर्मतत्त्व का भी ज्ञान जाता है । वैसे तो शुद्धअध्यवसायो की प्राप्ति ही धर्म है । परन्तु उसको लाने के लिए उपचार से वेषादि भी कारण है । इससे उपलक्षण से भी धर्म का कारण है ।
(A-54-55-56-57-58) तु० पा० प्र० प० ।
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