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षड्दर्शन समुच्चय भाग - १, श्लोक - १
स्याद्वाददास्तत्तदसद्धूत-विरोधादिदूषणोद्घोषणैः स्याद्वादस्य च्छेदिनः । तेषां ई लक्ष्मीं महिमानं वा श्यति तत्तदीयमतापासनेन तनूकरोति यत्तत्स्याद्वाददेशम् । के गे रे शब्दे । के कायतीति “क्वचिड्ड” [ हैम० ५/१/१७१] इति डे, कं वचनम्, स्याद्वाददेशं कं वचनं यस्य तम् । अनेन विशेषणेन प्रागुक्तानुक्तानामशेषाणां बौद्धादीनां संभवैतिह्यप्रमाणवादिचरकप्रमुखाणां च ^ -6/1 मतानामुच्छेदकारि वचनमित्यर्थः ।
टीकाका भावानुवाद :
प्रश्न : यदि चौबीस श्री जिनेश्वरो में परस्पर मतभेद नहीं है तो श्वेताम्बर तथा दिगम्बरो को किस प्रकार परस्पर मतभेद पडा ?
उत्तर : मूलत: चौबीस श्रीजिनेश्वरो के अनुयायिओ में परस्पर भेद नहीं था, वे भेद पीछे से पडे है।
(अब दूसरे प्रकार से “सद्दर्शनं जिनं नत्वा वीरं स्याद्वाददेशकम् " पदके शब्दो की व्युत्पत्ति करके अन्यदर्शन की मान्यताओं का खण्डन करते है ।) कीदृशं जिनम् ? अवीरम् यहां उपरोक्त पंक्ति में 'नत्वा' पद में से 'अ' निकाल के "वीर" के साथ जोडने से "अवीरम्" बना है। (यहां अवीर का आ+अ+उ+ईर पदच्छेद करने से ) आ = स्वयंभू, अ = कृष्ण, उ = ईश्वर महादेव, ये तीनो स्वरो की संधि के नियमानुसार "ओ” इस अनुसार सिद्धि होती है। तानीरयति - तन्मतापासनेन प्रेरयति - इस व्युत्पत्ति से “अच्” प्रत्यय लगने से "अवीरम्" बना है।
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इस प्रकार
कहने का आशय (मतलब ) यह है कि, सृष्टि, स्थिति और प्रलय (विनाश) के कर्ता अनुक्रम में ब्रह्मा, कृष्ण और महादेव के अभिमत मतो का निरास करनेवाले अवीर को नमस्कार करके ...... इस प्रकार अर्थात् सृष्ट्यादि के कर्ता ब्रह्मादिप्ररुपित मत का निरास करनेवाले अवीर है । उनको नमस्कार करके ऐसा अर्थ करना । (उपरोक्त पंक्ति में रहे हुए स्याद्वाददेशक पदका स्याद्वादद + ई + श+क पदच्छेद करके प्रथम स्याद्वादपदकी व्युत्पत्ति करते है ।) स्याद्वादं द्यन्ति छिन्दते इति स्याद्वाददः ते स्याद्वाददा: (यहां सिद्धहैम ५ - १ - १७१ सूत्र से 'ड' प्रत्यय लगा है।) अर्थात् तत् तत् मतके असद्भूतविरोध आदि दूषणो को बताकर उद्घोषणा द्वारा स्याद्वाद का छेदन करता है वह । (अब 'ई' की व्युत्पत्ति करते हुए कहते है कि) वह विरोधादि दूषणो को बताकर स्याद्वाद का छेदन करनेवालो की लक्ष्मी अर्थात् महिमा का नाश करता है। अथवा उनके तत् तत् मतो का खण्डन करके तनु करता है अर्थात् निरुत्तर करता है जो, वह स्याद्वाददेशम् । (अब पदच्छेद में रहे हुए 'क' पद का अर्थ करते है। “कै गै रे शब्दे " अर्थात् कै, गै, रै धातुए शब्दार्थक है । "कै कायति" इस अनुसार सिद्ध० हैम० ५-१ - १७१ "क्वचित्" सूत्र से 'ड' प्रत्यय लगकर 'क' शब्द बनता है और स्याद्वाददेशं कं वचनं यस्य तम् ( स्याद्वाददेशकम् ) इस व्युत्पत्ति से "स्याद्वाददेशकम् " पद बना। इस विशेषण द्वारा पूर्व में (पहले) (A-6-1) - तु. पा. प्र. प.
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