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शास्त्र की प्रतिष्ठा गिरानेवाले आचरण की निन्दा
यः शासनस्य मालिन्येऽनाभोगेनापि प्रवर्तते । स तन्मिथ्यात्वहेतुत्वादन्येषां प्राणिनां ध्रुवम् ॥१॥ बध्नात्यपि तदेवालं परं संसारकारणम् ।
विपाकदारुणं घोरं सर्वानर्थविवर्धनम् ॥२॥
जो व्यक्ति अनजाने में भी ऐसा आचरण करता है जिससे शास्त्र की प्रतिष्ठा गिरती है वह व्यक्ति अवश्य ही शास्त्रप्रतिष्ठा के इस गिराने के फलस्वरूप दूसरे प्राणियों में मिथ्यात्व (= असद्बुद्धि) को जन्म देकर (अथवा दूसरे प्राणियों में 'यह शास्त्र मिथ्या है। इस प्रकार की बुद्धि को जन्म देकर) अपनी आत्मा में भी (अर्थात् उक्त प्राणियों की आत्माओं में ही नहीं बल्कि अपनी आत्मा में भी) 'मिथ्यात्व-मोहनीय' नाम वाले 'कर्म' का बंध करता है-उस कर्म का जो संसार-चक्र में भ्रमण का सबसे बड़ा कारण है, जिसका फल दारुण होता है, जो स्वयं भयंकर है, तथा जो सब अनर्थों की वृद्धि करने वाला है ।
(टिप्पणी) जैन कर्म-शास्त्र में 'कर्मों' को आठ प्रकार का माना गया है जिनमें 'मोहनीय' नाम वाले 'कर्म' के संबंध में समझ है कि वह मोक्षमार्ग का सबसे बड़ा बाधक है; 'मोहनीय-कर्म' का भी सबसे अधिक घातक उप - प्रकार है 'मिथ्यात्व-मोहनीय' । यही कारण है कि मिथ्यात्व-मोहनीय 'कर्म' से एक आत्मा की मुक्ति इस बात की सूचक है कि वह अपने किसी न किसी निकट-आगामी जन्म में मोक्ष प्राप्त कर लेगी जबकि मोहनीय 'कर्म' से उसकी मुक्ति इस बात की सूचक है कि वह अपने इसी जन्म में मोक्ष प्राप्त कर लेगी; (अर्थात् जो आत्मा मिथ्यात्व-मोहनीय 'कर्म' के चंगुल में है वह यदि 'अभव्य' है तब तो उसे मोक्ष मिलनी ही नहीं लेकिन यदि वह 'भव्य' है तो भी उसे अपने किसी दूर-आगामी जन्म में ही मोक्ष मिल सकेगी) । वस्तुतः मिथ्यात्व - मोहनीय 'कर्म' के संबंध में समझ यह है कि वह प्रकट होता है जैन-धर्म के
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