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अष्टक-४
__ (टिप्पणी) 'इष्ट' तथा 'पूर्त' ये दो शब्द (संयुक्त शब्द 'इष्टापूर्त') ब्राह्मण-परंपरा में पारिभाषिक हैं । संक्षेप में 'इष्ट' से आशय है यज्ञ-पुरोहित को दिए जाने वाले दान से तथा 'पूर्त' से आशय है बावड़ी, कुआ, तालाब, मन्दिर, बाग बनवाने तथा अन्न-दान करने से । इन क्रिया-कलापों को विशेष रूप से शोभन कोटि का और इसीलिए स्वर्ग दिलाने वाला माना गया है; लेकिन स्पष्ट है जो क्रिया-कलाप स्वर्ग दिलाए वह मोक्ष-मार्ग का बाधक सिद्ध होता है और इसीलिए ब्राह्मण-परंपरा के ही मोक्षवादियों द्वारा 'इष्टापूर्त'
आदि की भर्त्सना की गई पाई जाती है । ब्राह्मण मोक्षवादियों का यह दृष्टिकोण आचार्य हरिभद्र के प्रस्तुत दृष्टिकोण का तत्त्वतः समर्थन करता है । यहाँ टीकाकार ने 'इष्ट' तथा 'पूर्त' का लक्षण करने वाले दो श्लोक इष्टापूर्त की भर्त्सना करने वाला एक श्लोक ब्राह्मण-परंपरा के ही ग्रंथों में से उद्धृत किए हैं । लक्षण संबंधी श्लोक हैं :
अन्तर्वेद्यां तु यद्दत्तं ब्राह्मणानां समक्षतः । ऋत्विग्भिर्मंत्रसंस्कारिष्टं तदभिधीयते ॥ वापीकूपतडागानि देवतायतनानि च ।
अन्नप्रदानमारामा: पूर्तं तदभिधीयते ॥ और भर्त्सना संबंधी श्लोक है :
ईष्टापूर्तं मन्यमाना वरिष्ठं नान्यच्छ्रेयो येऽभिनन्दन्ति मूढाः । नाकस्य पृष्ठे ते सुकृतेन भूत्वा इमं लोकं हीनतरं विशन्ति ॥
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