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केवल (सर्वविषयक) ज्ञान
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की चाँदनी का दृष्टान्त एक दृष्टान्त मात्र है)।
(टिप्पणी) आचार्य हरिभद्र का आशय यह है कि क्योंकि चंद्रमा की चाँदनी विश्व के सभी पदार्थों का स्पर्श नहीं करती उसकी सभी विशेषताएँ सर्वविषयक ज्ञान की विशेषताएँ नहीं हो सकती ।।
नाद्रव्योऽस्ति गुणोऽलोके न धर्मान्तौ विभुर्न च ।
आत्मा तद् गमनाद्यस्य नाऽस्तु तस्माद् यथोदितम् ॥८॥ क्योंकि कोई गुण एक द्रव्य के बिना रहता नहीं, क्योंकि अ-लोक में न धर्म (अर्थात् गति को संभव बनाने वाला एक तत्त्वविशेष) पाया जाता है न अ-लोक का कहीं अन्त है, क्योंकि आत्मा सर्वव्यापी नहीं इसलिए 'केवल' ज्ञान का कहीं जाना आदि संभव नहीं । अतः इस संबंध में उपरोक्त बात ही स्वीकार की जानी चाहिए (अर्थात् यह बात कि 'केवल' ज्ञान का आश्रय-स्थान आत्मा है)।
(टिप्पणी) जैन परंपरा की मान्यतानुसार जहाँ एक द्रव्य रहता है ठीक वहीं उस द्रव्य का एक गुण भी जबकि एक व्यक्ति की आत्मा का निवासस्थान उस व्यक्ति का समूचा शरीर मात्र है; इसलिए एक व्यक्ति का ज्ञानजो उस व्यक्ति की आत्मा का एक गुण है—उस व्यक्ति के शरीर से बाहर नहीं रह सकता । अतः 'नाद्रव्योऽस्ति गुणः' तथा 'विभुर्न च आत्मा' आचार्य हरिभद्र के इन दो वाक्यांशों का आशय इतना हुआ । दूसरे, यह भी एक जैन मान्यता है कि अ-लोक का कहीं अन्त नहीं तथा यह कि 'धर्म' नाम वाला तत्त्व जो लोक में गति को संभव बनाता है अ-लोक में नहीं पाया जाता; इन दो मान्यताओं के आधार पर कहा जा सकता है कि 'समूचे अ-लोक में पहुँचना' यह एक ऐसा काम है जो एक ज्ञान के लिए-वस्तुतः किसी के लिए भी—संभव नहीं । अतः 'अलोके न च धर्मान्तौ' आचार्य हरिभद्र के इस वाक्यांश का आशय इतना हुआ ।
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