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इसकी रचना भी सं० १६५० के आस-पास की ही है। श्लोक परिमाण ५८० है। इसकी १७वीं शताब्दी की १४ पत्रों की शुद्ध प्रति वर्धमान जैन ज्ञान भण्डार (बड़ा उपासरा), बीकानेर में प्राप्त है, क्रमांक १८६ है। ७. अष्टोत्तरी स्नात्रविधि-जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि शाहजादा सलीम (जहांगीर) के मूलनक्षत्र के प्रथम चरण में कन्या उत्पन्न होने के कारण इस दोष के शान्त्यर्थ अकबर की इच्छानुसार लाहोर जैन मन्दिर में जैन विधि से अष्टोत्तरी स्नात्र किया गया था। यह विधान जिनचन्द्रसूरि के नेतृत्व में जयसोम गणि ने किया था। इसी विधि को आचार्यश्री के आदेश से जयसोम ने उपाध्याय२९ बनने के पश्चात् अर्थात् १६५० लाहोर में राजस्थानी गद्य में लिखित रूप प्रदान किया। इसकी १९वीं शताब्दी की ज्ञानभक्ति लिखित १० पन्नों की प्रति दानसागर ज्ञान भंडार, बीकानेर, क्रमांक ५४२ में है। ८. बाहर भावना सन्धि-राजस्थान पद्य में बारह ढालों में बारह भावना का प्रतिपादन किया है। १२ भावनायें ये हैं-अनित्य, अशरण, भवस्वरूप, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्व, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोकधर्म, सुलोक और बोधिदुर्लभ। इसकी रचना सं० १६४६ बीकानेर३° में श्री जिनचन्द्रसूरि के राज्य में हुई है। इसकी अनेकों प्रतियाँ प्राप्त हैं। ९. बारहव्रतग्रहण रास-आचार्य श्रीजिनचन्द्रसूरि ने श्राविका कोडा३१ और श्राविका लाछलदेवी ने १६४७ वैशाख शुक्ला तृतीया को श्राविका के १२ व्रत ग्रहण किये थे। इस व्रत ग्रहण का रास राजस्थानी पद्यों में लेखक ने बनाया है। इसकी १७वीं शती में लिखी हुई प्रतियाँ श्री अभय जैन ग्रन्थालय, बीकानेर में है, क्रमांक १५९५ एवं १५९६ हैं। १०. वयरसामी प्रबन्ध ( वज्रस्वामी चौपई)-इस प्रबन्ध में आवश्यक सूत्र की बृहवृत्ति के आधार से दशपूर्वी श्री वज्रस्वामी का चरित्र राजस्थानी पद्यों में लिखा गया है। इसकी रचना सं० १६५९ श्रावण शुक्ला ४ को जोधपुर३२ में हुई है। भाषा में प्रवाह एवं लालित्य है। पद्य १४६ हैं। इसकी १७वीं शताब्दी की लिखित ६ पत्रों की प्रति दानसागर जैन ज्ञान भण्डार, बीकानेर में प्राप्त है जिसका क्रमांक नंबर है १२३७। ११. गुरुपर्वक्रम-यह खरतरगच्छ की ऐतिहासिक गुरु-परम्परा अर्थात् पट्टावली है। इसकी रचना का कारण बतलाते हुये लिखा है कि 'छिद्रग्राही और वेषधारी लोग परम्परा और आम्नाय से अनभिज्ञ व्यक्तियों को भ्रम में डाल देते हैं अतः उन अल्पज्ञ भव्यों के उपकारार्थ, गणाधिप जिनचन्द्रसूरि की आज्ञा से मैं इस गुरुपर्वक्रम को लिखता हूँ।'
श्रीमत्खरतरस्वच्छगच्छे सूरिर्गणाधिपः। श्रीवीरानुक्रमायातः जिनचन्द्रगुरोगिरा॥ २॥
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