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________________ महावीर वचनामृत -जैसे-जैसे लाभ होता है, वैसे-वैसे लोभ बढ़ता है। लाभ से लोभ की वृद्धि होती है। दो मासा सोने से होनेवाला (कपिल का) कार्य करोड़ो सुवर्णमुद्राओं से भी पूर्ण नहीं हुआ। सवे पाणा पियाउया, सुहसाया दुक्खापतिकूला। अप्पियवहा पियजीवणो, जीविउकामा सम्वेसि ।। जीवियं पियं, नाइवाइज्ज किंचणं ।। -प्राणीमात्र को अपनी जिन्दगी प्यारी है। सुख सबको अच्छा और दःख सब को बुरा लगता है। सब को बध ! अप्रिय है और जीवन प्रिय है। सब प्राणी जीना चाहते हैं। एक बात निश्चित है कि सब प्राणियों को अपना जीवन प्रिय है। इस कारण कोई किसी भी प्राणी की हिंसा न करे। जो सहस्सं सहस्साणं, संगामे दुज्जए जिणे। एगं जिणेज्ज अप्पाणं, एस से परमो जओ।। (उ. ९.३४) -भयंकर युद्ध में हजारों-हजार शत्रुओं पर विजय प्राप्त करें उसकी अपेक्षा अपने आप को जीत लेना सब से बड़ी विजय है। एवं खु नाणिणो सारं, जं न हिंसइ किंचणं । -ज्ञानियों के ज्ञान का सार यह है कि वह किसी भी प्राणी [सूक्ष्म-स्थूल] की हिंसा नहीं करता। जे एग जाणइ, से सम्बं जाणइ। जे सव्वं जाणइ, से एगं जाणइ।। -जो एक को जानता है वह सब को जानता है। और जो सब को जानता है वह एक को जानता है।। -आचारांगसूत्र चत्तारि परमंगाणि, दुल्लहाणीह जंतुणो। माणुसत्तं सुई सद्धा, संजमम्मि य वीरियं । । (उ. ३.१) -इस संसार में प्राणीमात्र को मनुष्यजन्म, धर्म का श्रवण सम्यक श्रद्धा और संयम-चारित्रमें प्रवृत्ति, यह चार उत्तम अंगो की प्राप्ति होना अत्यन्त दुर्लभ है। नाणं च दसणं चेव, चरितं च तबो तहा। एस मागो त्ति पन्नतो जिणेहि वरदंसिहि ।। (उ. २८.२) कम्मुणा बंभणो होइ, कम्मणा होइ खत्तिओ। बइसो कम्मणा होइ, सुदो हबई कम्मणा ।। (उ. २५.३१) - मनष्य बाहमण के योग्य कर्मद्वारा बाहमण बनता है, क्षत्रिय के योग्य कर्मद्वारा क्षत्रिय बनता है। वैश्य के कर्मद्वारा वैश्य बनता है और शूद्र के कर्मद्वारा शूद्र बनता है। -उत्तराध्ययनसूत्र -सर्वज्ञ जिन भगवान ने ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप को मोक्ष का मार्ग बताया है। * नाणेण जाणई भावे, सणेण य सद्दहे। चरित्तेण न गिण्हाइ, तवेण परिसझई।। (उ. २८.३५) * -ज्ञान से पदार्थों का सम्यग बोध होता है। दर्शन से श्रद्धा होती है। चारित्र से कर्मों का निरोध होता है. और तप से आत्मा परिशुद्ध-निर्मल होता है। कह चरे कहं चिट्ठे, कहमासे कह सए? कहं भुंजन्तो भासन्तो, पापकम्मं न बंधइ।। (दश. ४.३०) प्रश्न-कैसे चलना? कैसे खड़ा रहना? कैसे बैठना? कैसे सोना? कैसे खाना? कैसे बोलना? जिससे उसे पापकर्म का बन्धन न हो। नाणस्स सब्बस्स पगासणाए, अनाण मोहस्स विवज्जणाए। रागस्स दोसस्स य संखएणं, एगंतसोक्षं समुवेइ मोक्खं ।। (उ. ३२.२) जयं चरे जयं चिद्वे, जयमासे जयं सए। जयं भुंजन्तो भासन्तो, पापकम्मं न बंधइ।। (दश. ४.३१) प्रत्युत्तर-उपयोग या यत्नपूर्वक चले, यत्नपूर्वक खड़ा होवे, यत्नपूर्वक बैठे, यत्नपूर्वक सोवे, यत्नपूर्वक अर्थात् जयणापूर्वक भोजन करता हुआ और भाषण करता हुआ जीव पापकर्म को नहीं बांधता। -ज्ञान के समग्र प्रकाश से, अज्ञान और मोह के विवर्जन से, और राग-द्वेष के क्षय से आत्मा एकान्तसुख-* स्वरूप मोक्ष को प्राप्त करता है। कुसग्गे जह ओस बिंदुए, थोब चिट्ठइ लंबमाणए। एवं मणयाण जीवियं, समयं गोयम! मा पमायए।।(उ. १०.२) -जैसे कश के अग्रभाग पर ओस का बंद अपनी शोभा ! को धारण किये हुए थोड़े काल पर्यन्त ठहरता है, वैसे ही * मनष्य का जीवन भी अल्प समय तक स्थिर रहता है, . ऐसा समझकर हे गौतम! समय मात्र (एक सेकन्ड का असंख्यात भाग] का भी प्रमाद मत कर।। कोहो पीई पणासेड, माणो विणयनासणो। माया मित्ताणि नासेइ, लोभो सबविणासणो ।। (दश, ८.३७) । -क्रोध से प्रीति का नाश होता है, मान-अभिमान से विनय का नाश होता है, माया से मित्रता का नाश होता है और लोभ से सभी सद्गणों का नाश होता है। उबसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे। मायं च अज्जवभावेण, लोभं संतोसओ जिणे।। (दश. ८.३८) जहा लाहो तहा लोहो, लाहा लोहो पबडई। दोमासकयं कज्ज, कोडीए वि न निट्ठियं ।। (उ. ८.१७) -शान्ति से क्रोध को, नम्रता से मान को, सरलता से माया को एवं सन्तोष से लोभ को जीतना चाहिये। -दशवैकालिकसूत्र Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004065
Book TitleTirthankar Bhagawan Mahavir 48 Chitro ka Samput
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashodevsuri
PublisherJain Sanskruti Kalakendra
Publication Year2007
Total Pages301
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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