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करानेके लिए धनुषबाण के साथ दिखाया है। हालाँकि भगवान महावीरके जीवनमें युद्ध का प्रसंग नहीं बना था लेकिन भगवान नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, शान्तिनाथ आदिको छोटे-बड़े कई युद्ध करने पड़े थे। तीर्थकर चक्रवर्ती भी होते है तब छः खण्ड भूमिको जीतने के लिए हिंसाजन्य महायुद्ध भी उनको करने पड़ते है। तीर्थकरोकी अहिंसा वीरोकी है कायरोकी नहीं। तीर्थकर क्षत्रिय होते है, यह बोध कराने के लिए मात्र प्रतीक रूपमे यह चित्र बनाया गया है। इसी दृष्टिकोण से इसे समझे। __ यशोदा परमोच्चकोटिके पुरुष की पत्नी थी, वह बात अधेरेमे रहे, यह मुझे योग्य नहीं
लगा और इसी कारण दोनों पात्रों पर प्रकाश डाला गया है। चित्र-१८: सायंकाल का आदर्श प्रस्तुत करनेवाला यह चित्र है। इसमें राजा सिद्धार्थ का कुटुम्ब
दिखाया गया है। (विशेष के लिये देखें चित्र के सामने दिया गया चित्र परिचय) चित्र-१९: भातृविरह की व्यथा प्रस्तुत करनेवाला यह सुन्दर चित्र है। स्वयं भगवान ज्येष्ठ बन्धु
के पास खड़े होकर, दोनों हाथ जोड़कर विनयपूर्वक दीक्षा की अनुमति माँग रहे है। यह चित्र
आज की प्रजा को विनय धर्म की उत्कृष्ट शिक्षा प्रदान कर सके, ऐसा प्रेरक है। चित्र-२०: आचारांग आदि आगमों में भगवान महावीर का जीवन चरित्र संप्राप्त होता है। उसके
बाद तो समय-समय पर प्राकृत, संस्कृत अपभ्रंश भाषाओंमें अनेक विद्वानोंने लघु-विस्तृत चरित्र लिखे। इन सभी चरित्रोंमें थोड़े थोड़े मतमतांतर, विषमता और विषय निरुपणकी भिन्नता होती है। भगवान महावीरके जीवनचरित्रके विषयमें पिछले हजारेक वर्षमें एकरुपता का अभाव होना, यह आश्चर्यजनक सत्य है। कुछ बातें तो बेहद अलग मालूम होती है। लेकिन आचार्य-साधु सभी चरित्र न पढ़ पाये हो अथवा पन्ने पर भी स्मरण न रहा हो, जल्दीसे पढ़ा हो और ख्याल न रहा हो इस कारण जब कभी कोई लेखक इस प्रकारका प्रसंग लिख दे जो उनके ध्यानमें न हो तो वे तुरन्त नाना प्रकारसे प्रतिकूल आलोचना करने लग जाते है। "कैसा शास्त्र विरुद्ध लिखा है? उत्सूत्र प्ररुपणा की है। भगवान महावीरकी आशातना की है" आदि आदि बोलते, लिखते वे कटु शब्दावलीका उपयोग भी करने लग जाते है। परन्तु मेरी सभीसे नम्र प्रार्थना है कि सहसा कोई अभिप्राय व्यक्त न करें। अपना निर्णय देनेसे पूर्व लेखकसे स्पष्टीकरण कर ले अथवा स्वयं विविध ग्रन्थ देख ले. ताकि समाधान हो जाय।
सामान्य रुपसे अपने यहाँ कल्पसूत्र और त्रिषष्ठीशलाका पुरुष चरित्र ये दोनों ज्यादा पढ़े जाते है। इन दोनोंमें जिस प्रसंग वर्णन न आया हो, ऐसा प्रसंग यदि पढ़नेमे आता है तो वाचक अधीर, विषम, आकुल-व्याकुल बन जाता है। यह एक निश्चित बात है कि भगवान महावीरके चरित्रमें एकरुपता नहीं रही। मुझे आश्चर्य तो इस बात का होता है कि भगवान महावीर के निर्वाण के बाद एक हजार वर्षमें लिखे गये चरित्रोंमें कुछ न कुछ पृथक्त्त्व नजर आता है। शोधक विद्वानोको भिन्नता के कारणों पर शोध व चिन्तन करना चाहिए।
यहाँ जिन प्रसंगों को बताया गया है, उनका आधार कल्पसूत्र-टीका तथा अन्य ग्रंथ है। तीर्थकर भी गृहस्थावस्थामें पूजा करते है, यह अधिकार कल्पसूत्र तथा अन्य चरित्र ग्रन्थोमे उपलब्ध होता है। इस कारण यहाँ पर यह प्रसंग चित्रित कराया है। उन्होंने दो वर्षों में क्या किया होगा? इस जिज्ञासा के समाधान स्वरुप प्रतीक रूपमें पूजा और ध्यान विषयक चित्र
प्रस्तुत किये है। चित्र-२१: चित्र स्पष्ट समझा जा सकता है। इसमें विशेष कथनीय कुछ नहीं है। चित्र-२२: दानशाला में दिये जानेवाले इच्छित दान देते हए भगवान, दान लेनेवाले सैकडों लोग
और भगवान की बगल में देवगण अपना कर्तव्य निभाने के लिये खड़े हुए दिखाई दे रहे है। भगवान तो जो जितना माँगता उतना ही आनेवाले को देते हैं, परन्तु बीच में से देवगण ही सामनेवाले के भाग्य में जितना होता है, उतना ही जाने देते है। बचा हुआ वे बीच में से
लेकर वापिस कोशपात्र में डाल देते है। चित्र-२३: तीनलोक के नाथ की दीक्षा की शिबिका-पालकी किराय के नौकरों को हटाकर के
महान् सुखी जैसे देवगण स्वयं उठा रहे है। भगवान जैसे तारक देव की भक्ति किराये की नहीं अपितु लज्जा-संकोच छोड़कर स्वयं ही करनी चाहिए ऐसी शिक्षा इस चित्र द्वारा दी जा रही
है। पालकी के अन्दर कुटुम्ब की प्रधान स्वी तथा छत्र-चामरादि द्वारा भगवान की भक्ति __करनेवाली अन्य युवतियाँ बैठी हुई दिखाई पड़ रही है। चित्र-२४: चित्र स्पष्ट है। भगवान अशोकवृक्ष के नीचे खड़े होकर जनता के समक्ष ही पंचमुष्टि
लोच कर रहे है। उन केशों को इन्द्र वस्त्र में ग्रहण करते है और उस समय इन्द्र के द्वारा
दिये गये बहुमूल्य देवदूष्य बस्ा को बाएँ कन्ये पर धारण करते है। चित्र-२५: इस चित्र में भगवान के शरीर उपर की सुगन्ध से आकर्षित काले रंग के भमर दिखाई दे रहे है। भगवान उसे उड़ाने की परवाह नहीं करते और डक को समता भावना से सहन करते है। और युवती स्त्रियाँ प्रेम की और युवक सुगन्ध की याचनाकर अनुकूल उपसर्ग
कर रहे है। -यहाँ से प्रारम्भ हुए उपसर्ग की अवस्था में भी ध्यानस्थित भगवान का मुखमण्डल देखो। अपूर्व शान्ति और धैर्य का कैसा अद्भुत दर्शन होता है। कैसे भी कष्टों में सब को क्षमा-सहिष्णुता किस प्रकार बनाये रखनी चाहिये? इस प्रकार की शिक्षा इसके बाद के
उपसर्गों के चित्र दे रहे हैं। चित्र-२६ : कल्पसूत्र-बारसा आदिमें जहाँ कहीं तीर्थंकर भगवान के चित्र देखनेको मिलते है, वे
प्रायः एक ही तरहके, एक ही शैली व पद्धति के होते है। ये चित्र मिश्र शैली (भारतीय-ईरानी) के है। अति लघु आकारमे अथवा थोड़ी-सी रेखाओं द्वारा विषय को प्रस्तुत कर देना, यह इस शैली की विशेषता है। इन चित्रोंमें कलात्मक दृष्टिकोण, प्रमाणभान अथवा वस्तुस्थितिके सम्यक निरुपणकी दृष्टि का नितान्त अभाव होता है। १४ वी सदीसे १८वी सदी तक के कल्पसूत्रोंके चित्रोंकी समीक्षा अर्थात् शैली, रंग, लम्बा नाक, दीर्घनत्र, छोटे पैर , छोटी शय्या तथा वस्त्र, अलंकार, वृक्ष बतानेकी पद्धति, प्राणी चित्र आदि चित्रित करनेकी एक विशेष रीति आदि के सम्बन्ध में बहुत कुछ लिखा जा सकता है, परंतु यह स्थान समीक्षा के लिए समुचित नहीं जान पड़ता।
भगवानको 'लोकोत्तर पुरुष'से संबोधित किया गया परन्तु लोकोत्तर किस अर्थ में, किस संदर्भ में, उस अर्थ की मर्यादा क्या? इस पर विशेष विचार या चिन्तन नहीं किया गया। तीर्थकरों का जीवन त्याग-वैराग्यप्रधान होनेसे तीर्थंकरोंके चित्रोंके लिए विषय सीमित ही रहे
और आगे जाकर लक्ष्मण रेखा खींच दी गई। तीर्थकर साधु, त्यागी वर्ग के परम्परा से मान्य विषयोंके ही चित्र बनते रहते है। ऐसी परम्परा हो जाने से हमारा मानस भी बद्ध और रुत हो गया। इसी कारणसे कल्पसूत्र आदि के चित्रोंमे भगवानका न तो वास्तविक जीवन उभर कर आ सका और न ही नवीनता आ सकी।
भारतीय कला (इन्डियन आर्ट) में लाइट-शेड को तो स्थान ही नहीं था। ऐसा होने पर भी चित्रसपुट की इस तीसरी आवृत्ति में थोडी वास्तविकता और नवीनता बतानेका प्रयास किया है। खैर ! अब इन बातों पर पूर्ण विराम करें और प्रस्तुत चित्र का विवेचन करें।
इस चित्र में भगवान जंगलमें विहार कर रहे है और बायीं ओर के किनारे कायोत्सर्ग मुद्रामे ध्यान कर रहे है, यह प्रदर्शित किया है। नीचे के दो चित्रोंमें से प्रथम चित्रमे पंचदिव्य बताये नहीं जा सके। दीक्षा होने के बाद भगवान आश्रम में पधार गये। संन्यासी भगवानको उपालंभ देते है तथापि चेहरे पर दिखाई देता मौन सहित समताभाव अद्भुत प्रेरणा दे रहा है। यह प्रसंग यहाँ चौथे चित्र में स्पष्ट किया गया है। चित्र-२७ : दरिद्र बाह्मण की प्रार्थना सुनकर स्वयं भगवान उसे आधा देवदूष्य प्रदान करते है।
तीर्थकर देव भी अपनी स्वीकृत वस्तुओं में से अनुकम्पावश दान देते है। यह एक ध्यान में रखने
योग्य महत्त्वपूर्ण घटना है। चित्र-२८ से ३०: चित्र स्पष्ट समझा जा सकता है। चित्र-३१: नौका के नीचे जल में सुदंष्ट्र देव दिखाया गया है, ऊपर के भाग में किनारे पर रक्षा
के लिये आते हुए देव दिखाई पड़ रहे है। चित्र-३२: अनेक प्रकार के कष्टों -उपसर्गों से घिरे रहने पर भी भगवान के मुखमण्डल पर के
अद्भुत उपशम-प्रशान्त भाव को देखिये। उसके द्वारा हम कहाँ है? कैसे है? इसका विचार होगा ऐसा नियम है कि क्रोध से वातावरण गरम और प्रज्वलित होता है और गरम-उष्ण तत्व का रंग रक्त माना गया है, इसलिये चित्रकारने चित्र को रक्तरंगप्रधान प्रस्तुत किया है। चित्र-३३: एक राजकुमारी की कैसी दशा" होती है, वह और पारसमणि जैसे भगवान का
मिलाप होते ही उसकी कैसी उन्नति होती है वह, और तीर्थकर जैसे लोकोत्तर व्यक्तियोद्वारा दिये जानेवाले दान की महिमा कैसी है, यह सभी कुछ चित्र द्वारा समझा जा सकता है। भगवान ने अपने शासन की जिस दिन स्थापना की (वैशाख शुक्ला-११) उसी दिन इसी चन्दना को देव समवसरण में ले आया था और भगवान ने अपने संघ की आद्य और प्रधान साध्वी के रूप से स्थापित की थी। वे 'आर्या चन्दना' के नाम से विख्यात हुई। इसी आर्या ने केवलज्ञान प्राप्त कर उसी भव में मुक्ति प्राप्त की थी। जैनधर्म में मुक्ति प्राप्त होने के बाद संसार में
कभी आना नहीं रहता। चित्र-३४: काष्ठशूल के कील निकालने की चित्रस्थ पद्धति गणचंद्र मुनिवर रचित 'महावीर
चरिय' और 'त्रिषष्टि श. चरित्र' पर आधारित है। दूसरी रीति की क्रिया का उल्लेख 'चउपन म. पू. चरियं' में मिलता है। देखिये इस पुस्तक के परिशिष्टों की पत्र संख्या १४, टिप्पण-३६।
१०. श्वेताम्बर और दिगम्बर ग्रन्थों में चन्दना की कथा भिन्न रूप से पाई जाती है। श्वेताम्बर
ग्रन्थो में भी परस्पर भिन्नता है। बेडी पैर और हाथ दोनों में डाली थी कि सिर्फ पैर में थी? इस विषय में भी मतभेद देखा जाता है।
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