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________________ सिर्फ स्वप्न बतानेकी अपेक्षा स्वप्नदृष्टा माता का भी चित्रण साथमै हो तो चित्रमे पूर्णता झलकेगी, इस उद्देश्यसे चौदह स्वप्नोंकी प्रधानता रखते हुए नीचे त्रिशला माता का अति आकर्षक, नयन मनोहर, मेरे मनपसंद लाक्षणिक रेखाचित्र चित्रित कराया है। किसी भी तीर्थकर के जीवनचरित्रमें इस चित्रका उपयोग कोई करना चाहे तो हो सकता ___यह तो शाश्वत सत्य है कि मनुष्य-मात्र को जन्म देनेका अधिकार मात्र स्त्रियोंको ही है। इस कारण इन चौदह महास्वप्नोंको देखनेका अधिकार भी मात्र स्त्रियोंको ही है। स्त्रियों पर ही तीर्थकर आत्माको जन्म देने की महायशस्वी जिम्मेदारी होती है। समग्र स्वीसंसार के लिए यह एक अत्यन्त गौरवास्पद और नोपपात्र घटना है। इस चित्रको बनाने के अनेक कारणोंमें से एक कारण यह भी था कि संवत्सरीके दिन मूल कल्पसूत्र-बारसा वांचन के समय स्वप्नोंका वर्णन ठीक ठीक लम्बा चलता है। श्रोताओंमें जागृति बनी रहे तदर्थ उस समय बीच बीच में एकाद चित्र बताना बहुत जरूरी था। जो चित्रसंपुटकी प्रथमावृत्तिमें प्रकाशित नहीं हो सका था। चित्र-१०: कदली ग्रहों के बीच आराममण्डप में त्रिशला को सोयी हई दिखायी है. बगल में नवजात भगवान है और देवलोक से जन्मोत्सव मनाने के लिये आयी हुई, वर्तुलाकार घूमती हुई और आनन्दमंगल के साथ रास करती तथा भगवान के गुण गाती ५६ दिक्कुमारिका देवियाँ है। अन्य कदलीगृहों में भगवान की विविध भक्ति करती हुई देवियों को दिखाया गया चित्र-६ : चित्र को दो भागों में विभक्त किया गया है। ऊपर के विभाग में विमान स्थित सौधर्मेन्द्र स्वयं बाई ओर खडे हुए हरिणगमेषी देव जिसका हरिण जैसा मुख बताया है और हाथ जोड़कर खड़े है, उसे गर्भापहरण के लिये आदेश दे रहे है। नीचे के माग में बामणी देवानन्दा स्वयं को आये हुए १४ स्वप्नं बाह्मणपति ऋषभदत्त के समक्ष कहती हुई एवं ऋषभदत्त को उसका फल समझाते हुए दिखाया गया है। चित्र-७: चित्र को तीन विभाग में विभक्त करके चित्रकार ने तीन घटनाओं का दर्शन कराया है। ऊपर के भाग में शयनगृह में गर्भापहरण होने के बाद शोकग्रस्त देवानन्दा का, बीच में भगवान को त्रिशला की कुक्षि में स्थापित करने के लिये आकाशद्वारा क्षत्रियकुण्ड में जा रहे हरिणैगमेषी का, और नीचे सेवा करती दासिओं के साथ तन्द्राग्रस्त त्रिशला का शयनगृह दिखाया है। चित्र-८: पलंग पर सोई हुई महापुण्यवती तन्द्राग्रस्त क्षत्राणी रानी त्रिशला' की कक्षि में कुशलतापूर्वक देव ने गर्भ स्थापन किया। फिर तुरन्त ही गर्भ के प्रभाव से आये हुए चौदह महास्वप्नों को पूर्ण चन्द्रवदना माता त्रिशला तन्द्रावस्था में देख रही है, यह बताया गया है। चित्र-९: हृदय और नयन दोनों तृप्तिरस से परितृप्त बन जायँ, ऐसा यह सन्दर भव्य चित्र है। ब्लू बेकग्राउण्ड बहुत आकर्षक बना है। और वही इस चित्रमें प्राण फुक रहा है-चिवको चित्ताकर्षक बना रहा है। इसमें दो बातों पर विशेष रूपसे पाठकोका ध्यान आकृष्ट कर रहा हूँ। स्वप्न रात्रिमें आते है अतः बेक ग्राउण्ड काले रंगसे चित्रित किया जा सकता था, परन्तु धार्मिक परिवेश में काला रंग वळ समझे जानेसे नीले रंगका उपयोग किया है। इस रंगसे चित्र ज्यादा प्रभावशाली लग रहा है। चौदह स्वप्नों से तीन स्वप्न प्रसिद्ध पंचेन्दिय जानवरों के है। हाथी, सिंह और वृषभ। ये भारतीय-धार्मिक संस्कृति व कला क्षेत्रके मान्य व प्रसिद्ध प्रतीक है। २४ तीर्थकरों के लांछनोंमें भी इन तीनोंको स्थान है। तीर्थकर की प्रतिमा के परिकर में सिंह और हाथी को अविचल स्थान मिला है। यहाँ चित्रमें बहुत सोच समझकर तीनों प्रतीकोको एक साथ केन्द्रमें चित्रित कराये है। सामान्य रूपसे हाथीके बाद लक्ष्मी चित्रित की है। परन्तु क्रमानुसार बतानेके लिए तो लक्ष्मीके स्थान पर वृषभ और माला के स्थान पर सिंह होना चाहिए। इस क्रमसे स्वप्न न बताकर क्रमभंग करके चित्रित कराने के पीछे एक प्रबल कारण बना था। पेपर कटिंग कला के श्रेष्ठ कलाकार भैयाजी मेरे चित्रसंपुटके आधार पर पाटण शहरमें चौदह स्वप्न का चित्र पेपर कटिंग में बना रहे थे तब उनके पास उस चित्रको देखनेके लिए कई आचार्य और साधु आये। जब उन्होंने प्रथम स्वप्नमें सिंहका चित्रण देखा तो उन्होंने कहा-इसमें यशोविजयजी महाराज की भूल मालूम होती है क्योंकि प्रथम स्वप्न तो हाबीका है अतः वही चित्रित होना चाहिए। सिंह तो तीसरे स्वप्नमें आता है। यह सारा वार्तालाप विस्तारसे भैयाजीने मुझे लिखा। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ। मैने समाधान करते हुए लिखा कि हमारे आचार्य म.. मुनि भगवत प्रतिवर्ष पर्युषणमे कल्पसूत्रका बांचन करते है। इस सूत्रमे स्पष्ट उल्लेख है कि मध्य के २२ तीर्थंकरोंकी माता प्रथम स्वप्नमें हाथी, आदिनाथ की माता प्रथम स्वप्नमें वृषभ और अंतिम तीर्थंकर महावीरकी माता प्रथम स्वप्नमें सिंह देखती है। मैने भैयाजी को इस उल्लेख का सूत्रपाठ भी भेज दिया और लिखा कि अब यदि कोई शंका करे तो यह पाठ बता देना। ___ क्योंकि कल्पसूत्र वर्षमें एक ही बार पढ़ा जाता है, साथ ही समयकी अल्पता के कारण वांचन मे शीघता होती है, फिर प्रतिदिन जो स्नात्र पूजा पढ़ाई जाती है, उसकी ये पक्तियाँ-"पहले गजवर दीठो, बीजे वृषभ पइट्ठो, तीजे केसरी-सिंह" बहुत प्रसिद्ध है। बहुतसे लोगोंको यह पूजा कंठस्थ भी है। इस कारण सभी को यही ध्यान रहता है कि प्रथम स्वप्न हाथीका ही होता है। २२ तीर्थंकरोंकी माता प्रथम हाथी देखती है, इस कारण बहुमत होनेसे स्नात्र आदिमें प्रथम हाथी को स्थान दिया है। चौदह स्वप्नोंमें जानवरोंके स्वप्न तीन होनेसे यह वैकल्पिक व्यवस्था संभव हो सकी है। हमने भी चित्रमें बहुत-न्यायको मान्य करके केन्द्र में स्वतन्त्र हाथी बताया है, उसके ऊपर वृषभ और सिंह चित्रित कराये है। आशा है अब कोई प्रम में नहीं रहेगा। चित्र-११: प्रथम देवलोक का सौधर्मेन्द्र स्वयं ही तारक भगवान की पवित्र भक्ति का संपूर्ण लाभ एक मात्र मुझे ही मिले ऐसी उत्कट इच्छा से दैविक शक्ति के द्वारा अपने ही पाँच रूप बनाते है। एक रूप द्वारा करकमलों में नवजात भगवान को धारण करते है, दूसरे दो रूप से दोनों तरफ होकर चामर डुलाते हैं। चौथे रूप से छत्र धारण करते है और पाँचवे रूप से इन्द्रके शक्तिशस्त्र बज्र को उछालते है। चित्र में इन्द्र को आकाशमार्ग से मेरुपर्वत की ओर जाते हुए दिखाया गया है। चित्र-१२: मेरू पर्वत की अभिषेक-शिला के ऊपर बैठे हुए सौधर्मेन्द्र की गोद में भगवान है और देव बाल-भगवान का अभिषेक कर रहे है। अन्य देवगण अभिषेक के कलश तथा पूजादिक सामग्री लेकर खड़े है और शेष देववृन्द को आकाश में भगवान का भक्तिभाव से गुण संकीर्तन करते हुए बताया गया है। चित्र-१३: आध्यात्मिक विचार और भावनाप्रधान धार्मिक परिस्थितिमें माता, पिता और पुत्र-प्रेम के चित्र बनानेकी प्रथा जैन परम्परामें नहीं है। माता-पिता अपने तीर्थकर जैसे महान् पुत्रको प्रेम कर रहे है, लाइ-प्यार, दुलार कर रहे है, वात्सत्य का रस बरसा रहे है, इस प्रकार के चित्र मंदिरोंमे अथवा हस्तलिखित प्रतियोंमें कहीं पर भी देखनेमे नहीं आये। इसलिए प्रस्तुत चित्रमें बहुत चिन्तनपूर्वक इस विषय को भव्य रूपसे उपस्थित किया है। कल्पसूत्रकी प्रतिमें अथवा श्रमणभगवान महावीरकी जीवनीमें कहीं पर भी ऐसे प्रसंगोंका चित्रण देखनेमें नहीं आया। इसी कारण इस नई दिशामें कदम बढाकर ऐसा चित्र प्रस्तुत कर नवीनताकी ओर प्रस्थान किया है। यहाँ प्रेम-वात्सल्य के कुछेक प्रसंग प्रस्तुत किये है। इस प्रकारके अनेक चित्र बनाये जा सकते है। माता और पुत्रके चेहरोंकी कल्पनाएँ अनेक प्रकारसे हो सकती है। पसंद सबकी अलग-अलग होती है। फिर भी कभी कभी चित्रकार की इच्छाका आदर करना पड़ता है। यह मनोरम चित्र अवश्यमेव जनताके चित्त में प्रमोद-प्रसन्नता भर देगा। चित्र-१४ से १६: ये चित्र स्पष्ट समझ में आ जाते है, अतएव विवेचन की जरूरत नहीं है। ६. घटना क्रम के अनुसार उपर का दृश्य नीचे होना चाहिये, लेकिन देवलोक आकाशस्थ होने पर ऊपर बताना उचित समझकर उपर बताया है। ७. हरिणैगमेषी का नाम व्यवहार में 'हरिणगमेषी' प्रचलित हुआ, इसलिये लोगों ने उस देव को हरिण के मुखवाला बना दिया। वास्तव में वह उस प्रकार के मुखवाला नहीं है, परन्तु कभी ऐसे रूप की आवश्यकता हो तो दैविक शक्ति से अवश्य बना सकते है। ८. दिगम्बर परम्परा मीनयुगल और कलश को मिलाकर १६ स्वप्न मानती है। ९. त्रिशला की कुक्षि में स्थित पुत्रीरूप गर्भ को निकालकर देवानन्दा की कुक्षि में रख दिया चित्र-१७: आज तक गृह संसारसे सम्बन्धित, सर्वसामान्य प्रसिद्ध जीवन प्रसगोंका प्रभु महावीरकी चित्रकथाम अभाव रहा है। हजारों वर्षोंसे प्रभुसे संबंधित अनेक चित्र बने, पर इस प्रकारके चित्र बनानेका साहस आज तक किसीने नहीं किया। इस खटकनेवाली कमी की परिपूर्ति हेतु यहाँ गृह-संसारके पांच प्रसंग चित्रित किये है। यशोदा और वर्धमानकमारके विवाहका एक छोटा-सा मात्र प्रतीक चित्र बताया है। चित्रमें यशोदाने प्रथम वरमाला वर्षमानकुमारके कण्ठ में आरोपित की जो उनके गलेमें लटकती दिखाई दे रही है। पश्चात् वर्षमानकुमार अपनी भावी पत्नी यशोदा के कंठमें वरमाला पहना रहे है यह दिखाया गया है। दूसरे चित्रमे अपनी प्रिय पुत्री को भगवान प्रेम वात्सल्य कर रहे है। नीचेके तीसरे प्रसंगमें पति पत्नी दोनों सानंद वार्ता विनोद कर रहे है। और चौथा प्रसंगमें भगवान अपने क्षत्रिय मित्रोंके साथ वार्तालाप कर भगवान वर्षमान-महावीरके विवाहके तथा अन्य ग्रह-संसारके कल पाच प्रसंगोंका दिग्दर्शन इस चित्र द्वारा कराया गया है। मध्यके वर्तुलाकारमें वर्धमान क्षत्रिय कुमार है ऐसा बोध US Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004065
Book TitleTirthankar Bhagawan Mahavir 48 Chitro ka Samput
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashodevsuri
PublisherJain Sanskruti Kalakendra
Publication Year2007
Total Pages301
LanguageHindi, Gujarati, English
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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