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________________ लोक के विभाग : लोक के मुख्य तीन विभाग हैं - 1. अधोलोक, 2. मध्यलोक या तिर्यक्लोक और 3. ऊर्ध्वलोक | अधोलोक : चित्र में सबसे नीचे का एक भाग दिखाया है, वह अधोलोक नीचे से लगभग सात राज प्रमाण ऊँचा है। अधोलोक सबसे बड़ा है। इसमें सात नरक भूमियाँ है, जिनमें नारकी के जीव तथा भवनपति आदि असुर जाति के देव भी रहते हैं। यह वेभासन (बेंत की कुर्सी) के समान ऊपर संकडा 1 राजू तथा फिर नीचे की तरफ क्रमश: बढ़ता हुआ सात राज प्रमाण चौडा है। मध्यलोक या तिर्यक् लोक : अधोलोक के ऊपर तथा ऊर्ध्वलोक के नीचे बीच में 1800 योजन ऊंचा तथा 1 राज लम्बा मध्यलोक है। इसका आकार झालर या चूड़ी की आकृति जैसा गोल है। इसे तिर्यक् या तिज़लोक भी कहते है। मध्यलोक में ज्योतिष चक्र, मेरू पर्वत, जम्बूद्वीप आदि असंख्यद्वीप और समुद्र है। इसमें द्वीप समुद्र को और समुद्र द्वीप को परस्पर घेरे हुए है। मध्यलोक के मध्य में जम्बूद्वीप है, फिर लवण समुद्र है, फिर एक द्वीप और एक समुद्र है। इसी क्रम से चलते हुए सबसे अंतिम स्वयंभूरमण नामक द्वीप है और स्वयंभूरमण नाम का समुद्र उसे घेरे हुए है। इन द्वीपों में अढाई द्वीप है, जहाँ मनुष्य का निवास है। अढाई द्वीप में तीन द्वीप समाविष्ट है - 1. जम्बूद्वीप, 2. धातकीखंड द्वीप और 3. पुष्करार्द्ध द्वीप। इनमें जम्बूद्वीप और धातकीखण्ड द्वीप तो सम्पूर्ण द्वीप है, किन्तु पुष्करवर द्वीप को आधा लिया गया है। पुष्करवर द्वीप के आधे भाग के बाद मानुषोत्तर पर्वत है। वहाँ तक ही मनुष्य जन्म धारण कर सकता है, उससे आगे नहीं। ऊर्ध्वलोक : मध्यलोक के ऊपर ऊर्ध्वलोक है जो आकार में मृदंग के समान है। यह नीचे से चौडा होते हुए बीच में 5 राज प्रमाण चौडा होकर पुनः संकुचित होता हुआ ऊपर एक रज्जू प्रमाण रह जाता है। यह मध्यलोक से नौ सौ योजन ऊपर है। ऊर्ध्वलोक में देवों का निवास है। देवताओं के से देवलोक भी कहा जाता है। ज्योतिष चक्र से असंख्य योजन ऊपर जाने पर वैमानिक देव रहते हैं। पहला, दूसरा, तीसरा तथा चौथा देवलोक एक दूसरे के सामने अर्ध चन्द्राकार स्थिति में स्थित है। उनके ऊपर पांचवां ब्रह्मलोक है। वहाँ आठ कृष्ण राजियाँ है जिनके बीच में नवलोकान्तिक देव रहते हैं। पांच से आठ तक चार कल्पविमान एक दूसरे के ऊपर हैं। फिर नौ, दस, ग्यारह, बारह - ये चार विमान प्रथम चार की तरह एक दूसरे के सामने अर्ध चन्द्राकार स्थिति में स्थित है। बारहवें देवलोक के ऊपर नवग्रैवेयक देवलोक है। इसके ऊपर पांच अनुत्तर विमान है। अनुत्तर विमान के बारह योजन ऊपर अर्धचन्द्र के आकार में सिद्धशिला (मोक्ष स्थान) है। सिद्धशिला के एक योजन ऊपर लोकान्त क्षेत्र है जहाँ सिद्ध आत्माओं का निवास है। त्रसनाडी : लोक के ठीक मध्य भाग में महल के स्तंभ के समान एक राज लम्बी और एक राज चौड़ी दो दो पक्तियाँ है वह त्रसनाडी है। त्रस जीवों की उत्पत्ति मात्र त्रसनाडी में ही होती है। इससे बाहर त्रस जीव नहीं होते हैं। इसमें स्थावरकाय जीव भी रहते हैं। किन्तु त्रस नाडी के बाहर सिर्फ सूक्ष्म एकेन्द्रिय स्थावरकाय के जीव ही है और उसके आगे अनंत अलोकाकाश हैं। इस प्रकार नीचे से ऊपर 14 राज प्रमाण लोक है। नितारा
SR No.004061
Book TitleTattvartha Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2013
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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