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तृतीय अध्याय
अधोलोक-मध्यलोक द्वितीय अध्याय में गति की अपेक्षा से नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव के औदयिकादि भाव, गति, योनि, जन्म, प्रकार आदि का वर्णन किया गया है। इस अध्याय में नारक जीवों के निवास, शरीर, वेदना, विक्रिया, लेश्या, परिणाम आदि के विषय में चर्चा की गई है। नारक जीवों का निवास स्थान अधोलोक में है, एवं मनुष्य और तिर्यंच का निवास मध्यलोक में है अत: उनका भी वर्णन किया जा रहा है।
गतियों को समझने के लिए, पहले लोक स्थिति के विषय में जान लेना आवश्यक है! कहा जाता है “लोयते इति लोक" अर्थात आकाश के जिस भाग में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि छ: द्रव्य पाये जाते हैं, वह लोक कहलाता है। जहाँ आकाश के अतिरिक्त अन्य कोई भी द्रव्य नहीं पाया जाता है, वह अलोक है। वह अलोकाकाश अनन्तानन्त है, अखण्ड है, अमूर्त है। जैसे किसी विशाल स्थान के मध्य में छींका लटका हो उसी प्रकार अलोक के मध्य लोक अवस्थित है।
लोक का स्वरूप लोक का आकार : लोक के आकार को एक उपमा के द्वारा बताया गया है कि जैसे जमीन पर एक मिट्टी का दीपक उलटा रखकर उसके ऊपर दूसरा सीधा रखा जाय और उस पर तीसरा दीपक फिर उलटा रख दिया जाय तो उसका जैसा आकार बनता है, वैसा ही आकार लोक का है। पांव फैलाकर और कमर पर दोनों हाथ रखकर वेष्टित पुरुष के आकार की उपमा भी लोक के आकार के लिये दी जाती है।
जैसे वृक्ष सभी ओर से त्वचा (छाल) से वेष्ठित होता है। इसी प्रकार संपूर्ण लोक तीन प्रकार के वलयों से वेष्ठित है। पहला वलय घनोदधि (जमे हुए पानी) का है। दूसरा वलय घनवात (जमी हुई हवा) का है। तीसरा वलय तनुवात (पतली हवा) का है।
लोक का माप : लोक नीचे से ऊपर 14 राज प्रमाण है। ऊपर 1 राज चौड़ा, ऊपरी मध्य भाग 5 राज चौड़ा है। फिर घटते घटते मध्य में 1 राज का चौड़ा रहता है। तत्पश्चात् क्रमश: विस्तृत होता हुआ नीचे 7 राज चौड़ा है। इसी प्रकार लोक नीचे से ऊपर तक सीधा 14 राज लम्बा है।
राज एक प्रकार का क्षेत्र प्रमाण है। आगम की भाषा में असंख्य कोटा कोटि (करोड x करोड) योजन जितना एक राज माना जाता है। एक उपमा के द्वारा भी इस प्रकार समझ सकते हैं - तीन करोड, इक्यासी लाख, बारह हजार नौ सौ सितर (3,81,12,970) मन वजन का एक भार होता है। ऐसे एक हजार भार के लोहे के गोले को कोई देवता ऊपर से नीचे फेंके। वह गोला छह मास, छह दिन, छह प्रहर और छह घड़ी में जितने क्षेत्र को लांघ कर जावे, उतने क्षेत्र को एक राज कहा जाता है।
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