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________________ मतिज्ञान के 336 भेद व्यंजनावग्रह (अप्रकट अव्यक्त) अर्थावग्रह (प्रकट व्यक्त) अवग्रह - 1 अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा - 4 चक्षु और मन के अलावा शेष 4 इन्द्रियों से x 4 पाँचों इन्द्रियों एवं मन से x 6 12 प्रकार के पदार्थ x 12 12 प्रकार के पदार्थ x 12 बहु-बहुविध आदि कुल 48 कुल 288 48 + 288 = 336 श्रुतज्ञान का स्वरूप व भेद श्रुतं मतिपूर्व द्वयनेक-द्वादशभेदम् ||20।। सूत्रार्थ - श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है। जिसके दो, अनेक तथा बारह भेद होते हैं। विवेचन - मतिज्ञान कारण है और श्रुतज्ञान कार्य है क्योंकि मतिज्ञान से श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है। इसलिए उसको मतिपूर्वक कहा गया है। किसी भी विषय का श्रुतज्ञान प्राप्त करने के लिए उसका मतिज्ञान पहले आवश्यक है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान का कारण तो है, पर वह बहिरंग कारण है। अन्तरंग कारण तो श्रुतज्ञानावरणीय का क्षयोपशम है। क्योंकि किसी विषय का मतिज्ञान हो जाने पर भी यदि क्षयोपशम न हो तो उस विषय का श्रुतज्ञान नहीं हो सकता। श्रुतज्ञान के दो प्रकार - अंगबाह्य, अंगप्रविष्ट इनमें अंग बाह्य अनेक प्रकार के है और अंग प्रविष्ट के बारह प्रकार है। अंगबाह्य श्रुत - परमात्मा की वाणी के आधार पर जिन ग्रन्थों की रचना श्रुत केवली, स्थविर आदि करते है वे अंग बाह्य कहलाते हैं। अंग प्रविष्ट - तीर्थंकर परमात्मा अर्थ रूप उपदेश देते है। उस अर्थ रूप उपदेश को गणधर सूत्र रूप में गूंथते है वे सूत्र अंगप्रविष्ट कहलाते हैं। CADA ALEASEARNALRSee 85432174 Jaimedati internampal SGANA. COM 1726 FRENOWNerabnarreparate se wwwrejanelibrary.eigee
SR No.004061
Book TitleTattvartha Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2013
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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