SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सो-ऽनन्तसमयः ||39|| सूत्रार्थ : वह (काल) अनन्त समय वाला है। विवेचन : काल द्रव्य है या नहीं, इस विषय में मत भेद है। इसी कारण सूत्रकार ने "कालश्चेत्येके” यह सूत्र दिया है कि कोई कोई आचार्य काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं। सूत्रकार इस विवाद में नहीं पड़े कि काल स्वतन्त्र द्रव्य है या नहीं? उन्होंने केवल उल्लेख मात्र करके विषय को छोड़ दिया। यहाँ सूत्रकार कहते है कि काल अनन्त पर्यायवाला है। काल के वर्तना आदि पर्यायों का कथन तो पहले हो चुका है। समय रूप पर्याय भी काल के ही है। वर्तमान कालिन तो एक समय मात्र है परन्तु भूत और भविष्य की अपेक्षा से काल के अनंत समय है। इसलिए काल को अनंत समय वाला कहा गया है। द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः ||40|| गुण का स्वरूप सूत्रार्थ : जो द्रव्य में सदा रहें और स्वयं गुणों से रहित हों, वे गुण कहलाते हैं। विवेचन : द्रव्याश्रया : जो द्रव्य के रहित हो गुणा : वे गुण है। गुणद्रव्य आश्रित रहते हैं किन्तु वे ( गुण) स्वयं निर्गुण होते हैं यानि गुणों के आश्रित गुण नहीं रहते। जैसे चेतना आत्मा का गुण है लेकिन चेतना का अन्य गुण नहीं है। परिणाम का स्वरूप तद्भावः परिणामः ||41|| सूत्रार्थ : उसका भाव (परिणमन) परिणाम है अर्थात् स्वरूप में रहते हुए उत्पन्न तथा नष्ट होना परिणाम है। विवेचन : द्रव्य के भाव को परिणाम कहा जाता है। परिणाम का अर्थ है कि अपने स्वरूप का त्याग न करते हुए एक अवस्था से दूसरी अवस्था को प्राप्त होना । इसे साधारण शब्दों में पर्याय कहा जा सकता है। जैसे द्रव्य में उत्तर पर्याय का उत्पाद और पूर्व पर्याय का विनाश होता रहता है किन्तु द्रव्य फिर भी अपने स्वरूप में रहता है, उसके स्वरूप का विनाश न होता है और न ही उसमें परिवर्तन होता है, उसका स्थिरत्व ज्यों का त्यों त्रिकाल व्यापी रहता है। 131
SR No.004061
Book TitleTattvartha Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2013
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy