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नित्या-ऽवास्थितान्यरूपाणि च ||3||
सूत्रार्थ : उक्त द्रव्य नित्य है, अवस्थित है और अरूपी है।
विवेचन : धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य नित्य है, वे अपने सामान्य और विशेष स्वरूप से कदापि च्युत नहीं होते। वे स्थिर भी है अर्थात् उनकी संख्या में न्यूनाधिकता नहीं होती। स्थिरत्व का अर्थ अवस्थितत्व से है अर्थात् वे सब परिवर्तनशील होने पर भी अपने स्वरूप को नहीं छोड़ते और एक साथ रहते हुए भी दूसरे के स्वभाव से अस्पृष्ट है। जैसे जीव द्रव्य अपने द्रव्यात्मक सामान्य रूप और चेतनात्मक विशेष रूप को कभी नहीं छोडता, यह उसका नित्यत्व है और वह अजीवत्व को प्राप्त नहीं करता यह उसका अवस्थितत्व है। स्वरूप को न त्यागना और पर स्वरूप को न प्राप्त करना ये दो अंश सब द्रव्यों में समान है।
रूपिणः पुद्गलाः ||4||
सूत्रार्थ : पुद्गल द्रव्य रूपी है।
विवेचन : पूर्व में धर्म-अधर्म आदि को अरूपी कहा गया है। अरूपी कहने का अर्थ यह है कि उनमें वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, संस्थान आदि नहीं है। रूप, रस आदि इन्द्रिय ग्राह्य गुण जिसमें हो वह मूर्त या रूपी है। पुद्गल के गुण इन्द्रिय ग्राह्य है इसलिए उसे रूपी कहा गया है अतीन्द्रिय होने से परमाणु आदि सूक्ष्म द्रव्य और उनके गुण इन्द्रिय ग्राह्य नहीं है, फिर भी विशिष्ट परिणाम रूप अवस्था विशेष में वे इन्द्रिय द्वारा गृहीत होने की योग्यता रखते है। अत: अतीन्द्रिय होते हुए भी वे रूपी हैं। धर्मास्तिकाय आदि अरूपी द्रव्यों में इन्द्रिय विषय बनने की योग्यता ही नहीं है।
द्रव्यों की विशेषता आ आकाशादेक द्रव्याणि ।।5।।
सूत्रार्थ : आकाश तक एक-एक द्रव्य है। निष्क्रियाणि च ||6||
सूत्रार्थ : तथा निष्क्रिय है।
विवेचन : पांचों द्रव्य में से धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय - ये तीनों एक-एक द्रव्य रूप है और साथ ही तीनों निष्क्रिय भी हैं। निष्क्रियता से यहाँ परिणमन शून्यता नहीं समझनी चाहिए, परिणमन तो प्रत्येक द्रव्य का स्वभाव है।
___ यहाँ निष्क्रियता का अर्थ है गतिशून्यता या क्रिया रहित। ये तीनों द्रव्य एक स्थान से दूसरे स्थान पर नहीं जाते। जहाँ है, वहीं स्थिर है, अवस्थित है। साथ ही ये तीनों द्रव्य अखण्ड हैं, एक हैं अविभाज्य और समग्र हैं। जीव और पुद्गल गतिशील और अनंत भी हैं।
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