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________________ चतुर्थ अध्याय देवलोक तीसरे अध्याय में मुख्य रूप से नारक, मनुष्य और तिर्यंच की स्थिति, क्षेत्र आदि का वर्णन किया गया था। इस चतुर्थ अध्याय में देवों के निकाय, उनकी स्थिति, लेश्या, निवास, विशेषता आदि का वर्णन किया जा रहा है। देवों के प्रकार देवाश्चतुर्निकायाः ||1|| सूत्रार्थ : देव चार निकायवाले हैं। विवेचन : इस सूत्र में दो शब्द है 'देव' और 'निकाय'। देव : जो जीव देवगति नाम कर्म के उदय से अनेक द्वीप समुद्र तथा पर्वतादि रमणीय स्थानों में नाना प्रकार की क्रीडा करते हैं वे देव कहलाते है। जिनका शरीर दिव्य अर्थात् सामान्य चर्मचक्षुओं से न दिखाई दे, जिनकी गति (गमन शक्ति) अति वेग वाली हो, जिनके शरीर में रक्त, मांस आदि धातुएँ न हों, मन चाहे रूप बना सकते हों जिनके आँखों की पलके न झपकें, पैर जमीन से चार अंगुल ऊँचे रहे, शरीर की छाया न पडे। गले में पहनी हुई माला न मुरझाये तथा जिनका जन्म उपपात अर्थात् फूलों की शय्या पर हो। भवनपति वैमानिक निकाय : समूह विशेष या जाति को निकाय कहते है। देव के चार निकाय या प्रकार के हैं1. भवनपति, 2. व्यंतर, 3. ज्योतिषक और 4. वैमानिक। ज्योतिष देवों की लेश्या तृतीयः पीतलेश्यः ।।2।। सूत्रार्थ : तीसरा निकाय पीत लेश्या वाला है। विवेचन : उक्त चार निकायों में ज्योतिष्क तीसरे निकाय के देव हैं। उनको पीतलेश्या (तेजोलेश्या) होती है। यहाँ लेश्या का अर्थ द्रव्य लेश्या अर्थात् शारीरिक वर्ण है, अध्यावसाय विशेष
SR No.004061
Book TitleTattvartha Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNirmala Jain
PublisherAdinath Jain Trust
Publication Year2013
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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