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समय देशना - हिन्दी जैसी ज्ञाता की परिणति होती है, वैसा ज्ञेय जाना जाता है। ज्ञेयों से ज्ञान नहीं होता। ज्ञेयों से ज्ञान होता तो सभी को एक-सा ज्ञान होना चाहिए था। ज्ञाता की दृष्टि जैसी होती है, ज्ञेय उसको वैसा फलित होता है।
हे ज्ञानी ! अर्थ से ज्ञान होता है, कि आलोक से ज्ञान होता है ? पदार्थ से ज्ञान होता है, कि प्रकाश से ज्ञान होता है ? यदि पदार्थ ज्ञान कराता है, पदार्थ ज्ञान देता है, तो जब जगत में पदार्थ अनंत है, ज्ञाता अनंत हैं, उन सभी के क्षयोपशम एक-से होना चाहिए, क्योंकि पदार्थ सबको दिख रहे है ? अर्थ से ज्ञान नहीं होता, तो आलोक से ज्ञान होता है ? प्रकाश से ज्ञान होता है, तो उल्लू को भी प्रकाश में दिखना चाहिए, दिवान्ध चमगादड़ को भी दिन में दिखना चाहिए, इसलिए कि उसके पास प्रकाश है, पदार्थ है ?
हे मुमुक्षु ! न तो प्रकाश से ज्ञान होता है, न ही पदार्थ से ज्ञान होता है। स्वावरण क्षयोपशम लक्षण जिस जीव का जैसा है, ज्ञानावरणी कर्म के आवरण का क्षयोपशम जैसा होगा, उस जीव को वैसा ज्ञान होगा | आप पर-के ज्ञातृत्वपने में कर्तृत्व भाव ही ला पाओगे, पर विश्वास रखना, किसी को ज्ञाता नहीं बना पाओगे । आप ज्ञातृत्व के कर्ता तो हो सकते हो, लेकिन किसी के ज्ञाता नहीं हो सकते। आप पर-को ज्ञानी बनाने के भावों के कर्त्ता तो हो सकते हो, परन्तु पर-को ज्ञानी बनाने के कर्ता आप नहीं हो सकते। यदि आप पर को ज्ञानी बनाने के कर्ता हो जायेंगे, तो स्वयं का क्षयोपशम क्या करेगा ? हे ज्ञानियो ! आप पर के निमित्तकर्ता तो हो सकते हो, लेकिन उपादानकर्त्ता किंचित भी नहीं होते । साधकतम् करण और साधकतम् साधन उपादान दशा है । मैं पर-का ज्ञाता तो हूँ, पर-का कर्त्ता नहीं हूँ। परन्तु जैसा मैं निज का ज्ञाता हूँ, वैसा पर का ज्ञाता नहीं है। मैं पर-का ज्ञाता ज्ञेयभूत हूँ, मैं निज का ज्ञाता तन्मयभूत हूँ। मैं पर-का ज्ञाता ज्ञ
ज्ञातामात्र हूँ, परज्ञेय ज्ञेय मात्र है। परज्ञेय 'ज्ञेय' ही है, परज्ञेय 'ज्ञान' नहीं है। निज ज्ञेय ज्ञाता भी है, निज ज्ञेय ज्ञान भी है, निज ज्ञेय ज्ञप्ति भी है, निज ज्ञेय प्रमिति भी है, निज ज्ञेय प्रमाण भी है, प्रमाता भी है।
अब निहारना त्रैकालिक शुद्ध दशा । भटकने के लिए नहीं, सुलझने के लिए समझा रहा हूँ। त्रैकालिक शुद्ध । कर्म की उपाधि को छोड़ दीजिए, अखण्ड ध्रुवत्व को निहारिये । क्रियायें चलती भी रहें, क्रियावान् को देखिए। एक पुरुष है, उसे ससुर की बेटी पति बोल रही है, बहिन की बेटी मामा कह रही है, उसे भाई की बेटी ताऊ कह रही है, जमाई की बेटी नाना कह रही है, पिता की बेटी भाई कह रही है । हे पुरुष ! यह सब कह रहे हैं, तुम उनमें रह रहे हो, पर तुम उनके नहीं हो, और तुम उनमें भी नहीं हो। तुम तो निज के ही हो। तुम तो निज में ही हो । यह संबंध बोल रहे हैं, स्वभाव मौन है । वह पुरुष कुछ भी नहीं है, वह तो एकमात्र ध्रुव जीवद्रव्य है । परन्तु प्रत्येक ज्ञाता अपने ज्ञेय में उस पुरुष को नाना रूपों में जान रहा है। पर वह एक ध्रुव जीवद्रव्य है, एकरूप है। वह ज्ञाताओं की भावनाओं के अनुसार चलता है, तो अपने आपको नानारूप निहारता है, और उन्मत्त-जैसा भटकता है। वह पुरुष उन पर-ज्ञेयों को, पर-ज्ञाताओं को, निज के ज्ञेय बनानेवालों को छोड़कर निज का ज्ञाता बन जाये,निज को ही ज्ञेय बना डाले, तो वह पर से भिन्न एक ज्ञायकस्वरूप है। अत्यन्त भिन्नत्व में निहारिये । जैसे मैं परदेश गया। परदेशियों की बस्ती में मैं अकेला एक था। वहाँ किसी से मेरी मित्रता भी नहीं, शत्रुता भी नहीं थी, कोई रिश्तेदार भी नहीं था। मैं एक था। वहाँ शुद्ध का ज्ञान हो रहा था कि मैं अकेला हूँ। हे ज्ञानी ! जैसे परदेश की बस्ती में तुझे राग-द्वेष नहीं होता है, वैसे ही स्वदेश की बस्ती को निहार, तू परदेशी ही है। परदेश में भी रहने लग जाओ, तो सम्बन्ध स्थापित होने लगते हैं। मैं जबलपुर आया था तब कोई अपना नहीं था, परन्तु अब सब अपना-अपना कहते हैं। मैं किसी का नहीं हूँ। आप अपना मान भी मत बैठना । मैं तो परदेशी ही हूँ, कब उठकर चला जाऊँ, तुम्हें पता भी नहीं चल
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