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समय देशना - हिन्दी ये सब पर्यायभेद से अलग-अलग परिणमन कर रहे हैं, लेकिन परिणामी की दृष्टि से एक है। पुण्य भी आत्मा में है, पाप भी आत्मा में है । और सब धातुओं की मिश्रत्व में प्रत्येक धातु भिन्न-भिन्न है, परन्तु प्रतिमा एक है। इसलिए जहाँ हम प्रतिमा को निहारते हैं, वहाँ धातुओं को गौण कर देते हैं, अभाव नहीं करते हैं। ऐसे-ही जब हम ज्ञायकभाव को निहारते हैं, तो पुण्य-पाप आदि को गौण करते हैं । गौण किये बिना, अभेद का आनंद आता नहीं है। जब बेसन का लड्डू खाते हो, तो बेसन का लड्डू कहते हो। अलग से घी, बूरा, बेसन नहीं बोलते । अगर बोलोगे तो खाते समय स्वाद में, अनुभूति में किर-किरापन आ जायेगा। इसलिए जब लड्डू खा रहा था, तब तूने लड्डू मात्र को देखा है। उसमें बूरा, बेसन, घी नहीं देखा। जब-तक बेसन, बूरे, घी को गौण नहीं करोगे और लड्डू को प्रधान नहीं करोगे, तब-तक लड्डू का आनंद नहीं आता है। ऐसे ही जब-तक ज्ञान-दर्शन-चारित्र, पुण्य-पाप, सुख-दु:ख आदि को गौण नहीं करोगे, तब-तक ज्ञायक स्वरूप की अनुभूति नहीं आयेगी। यह सब है, पर यह सब मैं नहीं हैं। पूण्य है, पाप है, शरीर है शरीर में रक्त है, पीप है, माँस है, मज्जा है, ये सबकुछ हैं, परन्तु मैं इनसे भिन्न हूँ। ये सबकुछ हैं, पर मैं इनका कुछ भी नहीं हूँ। यह ध्रुव सत्य है। जिस तन में मैं निवास कर रहा हूँ उसकी सत्ता है, अभाव नहीं है , लेकिन मैं तन नहीं हूँ | पुण्य है, पाप है; पर दोनों पुद्गल की पर्याय ही हैं, वे चेतन के धर्म नहीं हैं । मैं तो ज्ञायकस्वभावी हूँ। आठ कर्म की १४८ प्रकृतियाँ हैं, चौदह गुणस्थान हैं, चौदह मार्गणास्थान हैं, चौदह जीव समास हैं, विशुद्धि स्थान हैं, संक्लेश स्थान हैं; पर मैं ये नहीं हूँ। मैं तो ज्ञायकस्वभावी हूँ । ज्ञान कभी धर्मीस्वरूप परिवर्तित नहीं होगा। धर्मी त्रैकालिक रहेगा, धर्म उसमें रहेंगे । ज्ञान 'धर्मी नहीं है, ज्ञान 'धर्म' है। धर्म त्रैकालिक रहेगा धर्मी में । धर्मी धर्म से रहित होता नहीं। वह तो जगत को समझाने के लिए कहना पड़ता है कि धर्म भिन्न है, धर्मी भिन्न है, अग्नि भिन्न है, उष्णता भिन्न है। लेकिन अग्नि से अलग उष्णता होती नहीं और चेतन से भिन्न ज्ञानदर्शन होता नहीं। पर गुण-गुणी का भेद किये बिना गुणी को समझा जाता नहीं, इसलिए गुण को बताना आवश्यक है। आवश्यक तो है, अनिवार्य नहीं है। जो बोल रहा है, वही धर्मी है। जो पकड़ने को कह रहा है, उसे ही पकड़कर बैठ जाओ, वही धर्मी है। 'ज्ञान' शब्द ज्ञान नहीं है, 'धर्म'-शब्द धर्म नहीं है, 'धर्मी' शब्द धर्मी नहीं है । ये तो पुद्गल की पर्याय है। शास्त्र में लिखा 'ज्ञान'-शब्द ज्ञान नहीं है। पुस्तकों में जो ज्ञान समझते हैं, वे परम अज्ञानी हैं। ग्रन्थों में ज्ञान होता, तो अलमारी बोलती मिलती। ग्रन्थों में ज्ञान होता, तो ग्रन्थ बोलते मिलते । ज्ञान ग्रन्थों में नहीं, निर्ग्रन्थों में है। ग्रन्थ द्रव्यश्रुत है, लेकिन द्रव्यश्रत निमित्त मात्र है। ज्ञान तो चेतन ही का धर्म है। चेतन से भिन्न 'ज्ञान' नाम की कोई वस्तु है नहीं है। इसलिए सम्पूर्ण द्रव्यों से द्रव्यान्तर का भाव भिन्नत्व भाव ही उपास्य है।
बिल्कुल स्थिर हो जाओ, पिछले विषय पर पहुँच जाओ, करतल पर । ज्ञेय में निष्ठित होने पर भी ये करतल है, जो ज्ञेय है, पर तू ज्ञानी है। हे ज्ञानियो! इस करतल को निहारते जाइये। तेरा ज्ञान ही करतल रूप होगा, कि करतल ज्ञेय जो है, वह ज्ञान होगा? तेरा ज्ञान ज्ञेय को जानेगा, या ज्ञेय ज्ञान को बनायेगा? यदि ज्ञेयों से ज्ञान बनता होता, तो सभी ज्ञाताओं को एक-जैसा ज्ञान होना चाहिए था। फिर यूँ कहूँ कि आपकी पत्नी के बेटे को, अथवा यूँ कहूँ कि आपके बेटे को अपनी माँ का जैसा ज्ञान होता है, वैसा ही तुझे भी होना चाहिए ? पकड़िये मैं क्या कह रहा हूँ। गहरी बात है। जैसा तेरे बेटे को अपनी माँ का जो ज्ञान है, आपके बेटे के ज्ञान में जो माँ ज्ञेय है, वह एक जीवद्रव्य है । वह बेटे के ज्ञान में माँ है, तेरे ज्ञान में भी माँ होना चाहिए? तेरे ज्ञान में माँ हो जाये तो तेरे बेटे की माँ कौन होगी? ज्ञेयों से ज्ञान नहीं होता, ज्ञान से ज्ञेय जाने जाते हैं और
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