________________
सम्पादकीय
जैन धर्म में वर्तमान शासन नायक भगवान् महावीर और उनकी दिव्यध्वनि के धारक द्वादशांग आगम के प्रणेता गौतम गणधर के बाद श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्य को प्रधानता दी गई है। यही कारण है कि प्रत्येक माङ्गलिक कार्य के पूर्व जैनधर्मानुयायियों में निम्नलिखित मङ्गल श्लोक पढ़ने की परम्परा सतत प्रवहमान है -
'मङ्गलं भगवान् वीरो मङ्गलं गौतमो गणी ।। मङ्गलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मङ्गलम् ।
श्री कुन्दकुन्दाचार्य श्रमण संस्कृति के उन्नायक, प्राकृतवाङ्मय के अग्रणी प्रतिभू, तर्कप्रधान दार्टान्तिक शैली में लिखित अध्यात्म साहित्य के युगप्रधान महामनीषी हैं । उनकी महत्ता इसी से सिद्ध है कि पश्चाद्वर्ती आचार्य परम्परा अपने को कुन्दकुन्दान्वयी कहकर गौरवित समझती है । प्रो. हार्नले ने विभिन्न शास्त्रों, पट्टावलियों, एवं पुरातात्त्विक सामग्रीका अध्ययन - अनुसन्धान करके आचार्य कुन्दकुन्द का जन्मसमय ई.पू. १०८ निर्धारित किया है । नन्दिसंघ की पट्टावली के अनुसार श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने ९५ वर्ष १०माह १५ दिन की दीर्घायु पाई थी । उन्होंने ११ वर्ष की अल्पवय में दीक्षा धारण की थी तथा वे ३३ वर्ष तक मुनिपद पर आसीन रहे थे। तदनन्तर ४४ वर्ष की आयु में उन्होंने आचार्य पद को अलंकृत किया था । ५१ वर्ष १० माह १५ दिन तक वे इस पद को सुशोभित करते रहे और अन्त में ई. पू. १२-१३ में उनका समाधिमरण हुआ था । इस प्रकार अद्यावधि आचार्य कुन्दकुन्द का समाधिमरण हुये दो सहस्र वर्ष से भी दो दशक अधिक हो चुके हैं ।
विपुल साहित्य प्रणयन की दृष्टि से न केवल प्राकृत भाषा में ही, अपिल सम्पूर्ण भारतीय वाङ्मय में कुन्दकुन्दाचार्य अग्रणी एवं सर्वातिशायी हैं । उन्होंने अध्यात्मविषयक और तत्त्वज्ञान विषयक दोनों प्रकार के साहित्य की रचना की है। निम्नलिखित २१ ग्रन्थ निर्विवाद एवं प्रामाणिक रूप से कुन्दकुन्दाचार्य प्रणीत हैं
पयवणसारो, समयसारो, पंचत्थिकाय, णियमसार, बारस अणुवेक्खा, दंसणपाहुड, चारित्तपाहुड, सुत्तपाहुड, बोधपाहुड, भावपाहुड, मोक्खपाहुड, लिंगपाहुड, सीलपाहुड, सिद्धभत्ति, सुदभत्ति, चारित्तभत्ति, जोइभत्ति, आयरियभत्ति, णिव्वाणभत्ति, पंचगुरुभत्ति और तित्थयरभत्ति ।।
रयणसार भी कुन्दकुन्दकृत माना जाता है । किन्तु भाषा-शैली की दृष्टि से इसमें अन्य कृतियों की अपेक्षा भिन्नता दृष्टिगत होती है । जैन अध्यात्म एवं तत्त्वज्ञान के लिए इन ग्रन्थों की महत्ता सर्वस्वीकृत है ।
अध्यात्म की दृष्टि से कुन्दकुन्दाचार्यप्रणीत ग्रन्थो में समयसार का विशेष महत्त्व है। इसका नाम ग्रन्थकार ने समयपाहुड कहा है किन्तु, अमृतचन्द्रसूरि ने नमःसमयसाराय' कहकर अपनी टीका आत्मख्याति प्रारंभ की है। कदाचित् इसी कारण समयपाहुड को समयसार नाम से विशेष प्रसिध्दि मिली है। अमृतचन्द्ररचित आत्मख्याति पाण्डित्यपूर्ण शैली में लिखित निश्चयनयप्रधान टीका है । इसके पश्चात् जयसेनाचार्य ने उभयनयाश्रित तात्पर्यवृत्ति नामक टीका लिखी, जो सरल एवं स्पष्ट है । अमृतचन्द्रसूरि का समय १० वीं शताब्दी ईस्वी तथा जयसेनाचार्य का समय १२ वीं शताब्दी ईस्वी मान्य है । आत्मख्याति के अनुसार समयसार में ४१५ गाथायें तथा तात्पर्यवृत्ति
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org