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________________ समय देशना - हिन्दी येनांशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बंधनं भवति ॥ २१२ ॥ पु.सि.उ.।। जितने अंश में राग है, उतने अंश में बन्ध अवश्य है । रत्नत्रय मोक्ष मिलता है, फिर भी सभी रत्नत्रयधारी मोक्ष नहीं जाते। यह रत्नत्रय का दोष नहीं है, रत्नत्रय तो मोक्ष ही का कारण है। जो स्वर्ग जाते हैं, वह रत्नत्रय की असमग्रता से जाते हैं, रत्नत्रय से नहीं । जब तक असमग्र है, तब तक मोक्ष नहीं । रत्नत्रय के बिना शुद्धोपयोग नहीं है । रत्नत्रय की पूर्णता चौदहवें गुणस्थान में होती है । सीले सिं संपत्तो णिरूद्धणिस्सेसआसवो जीवो । ७० कम्मरयविप्पयुक्को गयजोगो केवली होदि ॥ गो. सा. जी.कां. ।। ६५१ ।। जहाँ अट्ठारह हजार शील की पूर्णता होती है, वहाँ रत्नत्रय की पूर्णता होती है। ज्ञान से या ज्ञान की पूर्णता से मोक्ष नहीं होता है, चारित्र की पूर्णता से मोक्ष होता है। क्योंकि ज्ञान की पूर्णता तेरहवें गुणस्थान में होती है, पर चारित्र की पूर्णता चौदहवें गुणस्थान में होती है। इसलिए ज्ञान की पूर्णता से मोक्ष मान लोगे, तो केवली की वाणी कभी सुनने को नहीं मिलेगी । ज्ञान होते ही मोक्ष हो गया तो, अहो जैनियो ! तुम जैन भी नहीं बचोगे । क्यों ? वीतराग शासन में क्षणिकवादी कहाँ से आ गया, जिसने ज्ञान से मोक्ष मान लिया । ज्ञान होते मोक्ष होता है, बोध तो हो गई, फिर बोधि देनेवाला कौन बचेगा ? इसलिये ज्ञान की पूर्णता से मोक्ष नहीं होता, चारित्र की पूर्णता से मोक्ष होता है। इसलिए ग्रंथों में लिखा है "चारितं खलु धम्मो” । जहाँ चारित्र की पूर्णता होगी, वहाँ पहले ही ज्ञान की पूर्णता हो चुकी होगी । अब ध्यान दो, जो परमब्रह्म है, वह स्वतः सिद्ध है, अपने आप में सिद्ध है, ज्ञायक-भाव है। सिद्ध पर्याय सिद्ध नहीं है । केवलज्ञान सिद्ध नहीं है, मतिज्ञान सिद्ध नहीं है। जो अनादि से अनंत-काल तक सिद्ध वह ज्ञायक भाव है । सिद्ध पर्याय होगी, केवलज्ञान पर्याय होगी, क्षयोपशम होगा, पर जीवद्रव्य को ज्ञायकभाव होता ही है । ज्ञायकभाव में उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य होता है। पर ज्ञायकभाव का उत्पाद नहीं होता है, व्यय नहीं होता । ज्ञायकभाव होता है, उस ज्ञायकभाव में उत्पाद भी है, व्यय भी है, इसलिए कथंचित् ज्ञायकभाव ही है। इसलिए ये सब ज्ञायकभाव की पर्यायें हैं, ज्ञायकभाव तो अकेला ही है । ज्ञायकभाव दर्पण है, उसमें जो भी दिखेगा वह झलकेगा ही। वह त्रैकालिक जैसा स्वभाव है, वैसा ही रहेगा। मैं तो हूँ, मेरे में हो रहा है, फिर भी मैं तो हूँ ही। मेरे में हो रहा है, मेरा भी हो रहा है, पर का भी हो रहा है, फिर भी मैं पर से अभिन्न नहीं हूँ, भिन्न ही हूँ। मैं तो ज्ञायकस्वभावी हूँ । दर्पण में चेहरे आ रहे जा रहे, फिर भी दर्पण का झलकन स्वभाव नहीं जा रहा । ज्ञान की पर्याय आ रही है ज्ञेयों के अनुसार, पर ज्ञायकभाव अविनाशी है । वह निगोदिया से लेकर सिद्धों तक चलता है । वह त्रैकालिक ध्रुव है। इसलिए ध्यान दो, आपको चरणानुयोग में रहना चाहिए, मैं क्यों कहूँ। मैं तो ज्ञायकभाव कह रहा हूँ। यह परम योगी की दशा है। यह भूल आपकी है जो आप चरणानुयोग को खोकर बैठे हो । चरणानुयोग के अनुसार अपने को लेकर आइये और ज्ञायकभाव को निहारिये । 1 जैसे - ये करतल है । विश्वास कीजिये, इसके कई रूप आपके ज्ञान में हैं। भाई को भाई का हाथ दिख रहा है, शिष्य गुरु का हाथ कहेगा, गुरु शिष्य का हाथ कहेगा, और किसी रागी को राग का हाथ दिखेगा । ये तो करतल है । इसमें कोई संबंध नहीं है, अपने आप में असंबंधी है। पर्याय परिणामों में आ रही है । करतल अपने परिणामी में परिणमन कर रहा है। तेरे परिणामों की पर्याय इसको देखकर परिणमन कर रही है । मैं तो ज्ञायकस्वभावी हूँ । ज्ञायकस्वभाव ज्ञेयरूप होता नहीं। पर वे ज्ञानी अल्पज्ञ हैं, जो ज्ञेय को ज्ञायकरूप I Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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