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समय देशना - हिन्दी बैठ जाओ, अपने आप आयेगा। यही कारण है कि स्वाध्याय के समय में जो भरा है, उसे सामायिक में उकेलो।
जातिस्मरण सबको नहीं होता । मंदकषाय से, मंद परिणामों से जो मृत्यु को प्राप्त होता है, उसे होता है। मृत्यु के समय जो तीव्रराग के संस्कार थे, वह पर्याय की प्रत्यासत्ति कारण बन गई जातिस्मरण में।
मूल विषय था 'अनुमान' । वह अनुमान मतिज्ञान का विषय है। परोक्ष-प्रमाण के भेद हैं- स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान, आगम । अनुमान-प्रमाण के बिना प्रत्यक्ष-प्रमाण भी घटित नहीं होता । बौद्ध दर्शन में अनुमान और प्रत्यक्ष को प्रमाण मानते हैं। चार्वाक तो केवल प्रत्यक्ष प्रमाण को मानते हैं। तो उनसे कहना है कि आपका जो प्रत्यक्ष है वह बिना अनुमान के होता नहीं है । क्यों ? ये पेन है, यह आपने कैसे जाना? इस पेन से लिखना पड़ता है। अभी तो आप लिखने को कहाँ देख रहे थे, फिर कैसे कह दिया ? प्रत्यक्ष-प्रमाण परोक्ष-प्रमाण के साथ ही घटित होता है। प्रत्यक्ष की प्रमाणिकता की सिद्धि में अनुमान सहायक है। ऐसा कोई कार्य था, इसलिए आप कर रहे हो। मैं इस तत्त्व को आगम से, तर्क से, अनुमान से कह रहा हूँ। अनुमान कह रहा है साधन से साध्य का ज्ञान ।
___नाड़ी बता रहा था मैं । वात, पित्त, कफ ये विषम हो जाये तो अस्वस्थ है। एक भी कम हो जाये तो मृत्यु होती है। डॉक्टर आपकी नाड़ी को देखकर आपका भविष्य बता रहा है । वात-प्रकृति है तो इससे बात नहीं करना, मंदबुद्धि है। मंदबुद्धि बातें ज्यादा करते हैं और सम्मान चाहते हैं। पित्त-प्रधान है तो बुद्धि तेज है, परन्तु कषायी है, बहुत क्रोधी है । करणानुयोग से बोलो तो क्रोधकषायप्रधान पित्तप्रकृति, नीललेश्या से युक्त है। वातप्रधान नीललेश्या वाला मंदबुद्धि । कफ प्रकृतिवाला शीतल-परिणामी है। कफ
और पित्त ये दो मिल जायें तो साधुपुरुष है, प्रखर बुद्धि, भद्रपरिणामी, स्वस्थ शरीर और मन्द कषाय । जो साधुस्वभावी होता है, उससे कभी भी मिलना, आँखों से नहीं रोता है, हृदय से रोता है । वह मिलनसार व तर्कशील होगा। यह कौन बोल रहा है? अनमान ज्ञान। आप आत्मा का वेदन करते हो कि नहीं करते हो? अनुमान से जानते हो । नाड़ी 'करण' है। मैंने नाड़ी से नर को देखा, यह कर्मकारक नहीं है। आपने आत्मा का वेदन किससे किया? भिन्न आत्मा का ? अब करण लगाइये । ये जी रहा है, आपने अपनी आत्मा के ज्ञान से भिन्न आत्मा को जान लिया है । हे मुमुक्षु ! जो भिन्न आत्मा को अपनी आत्मा से जानता है, तो मैं अपनी आत्मा को नहीं जानता? नहीं मानता तो तू नैयायिक हो जायेगा। क्योंकि नैयायिक व मीमांसक आत्मा को स्वसंवेदी नहीं मानते । इसलिए ध्यान दो,स्वसंवेदन स्वानुभूति आप में है, कि नहीं है ? पर जैसी करना चाहो, वैसी है। कैसी है ? जैसा विषय है, वैसी है। किसी को काम, भोग, बंध की अनुभूति चलती है, तो किसी का संयमाचरण है, सम्यक्त्वाचरण है, तो किसी को स्वरूपाचरण है, उनकी अनुभूति वैसी है। ज्ञान आत्मा ही का गुण है। जो ज्ञान से वेदन कर रहे हो, वह कौन ले रहा है ? आत्मा । किससे ले रही है ? स्वयं के ज्ञान से अनुभूति ले रही है। ज्ञान 'ज्ञान' होता है, ज्ञान 'ज्ञेय' नहीं होता है। इसलिए जो ज्ञानानुभूति है, वह स्वानुभूति है। बस, विषयभेद है। अनुभूति है। इस टीका में इसी को सिद्ध कर रहे हैं। आप समझते जाना | आप लगा लेना।
ज्ञानानुभूति से शून्य जगत में कोई जीव नहीं रहता। मिथ्यादृष्टि की अनुभूति मिथ्यानुभूति है, स्वानुभूति नहीं है। मोक्षमार्ग में प्रयोजनभूत किंचित भी नहीं है। सम्यग्दृष्टि की अनुभूति और पंचपरमेष्ठी की भक्ति परम्परा से मोक्ष का कारण है और विषयकषाय की अनुभूति संसार का कारण है।
येनां शेन सुदृष्टिस्तेनांशेनास्य बंधनं नास्ति ।
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