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समय देशना - हिन्दी जाओगे।
गोमटेश्वर में प्रश्न किया- माँ-पिता के चरणस्पर्श करना सम्यक्त्व, है कि मिथ्यात्व। न सम्यक्त्व न मिथ्यात्व/सम्यक्त्व इसलिए नहीं है, कि वे देव-शास्त्र-गुरु नहीं हैं । मिथ्यात्व इसलिए नहीं है कि वे कुदेव, कुशास्त्र, कुगुरु नहीं हैं। माँ-पिता के चरणस्पर्श लोकाचार है । धर्म व्यवहार में अव्रती भी देशव्रती ब्रह्मचारी तक चरण स्पर्श नहीं करता या उत्कृष्ट श्रावक पूर्व तक किसी की वंदना नहीं।
आचार्य-भगवान् कह रहे हैं, कि मैं जो कह रहा हूँ उसमें चूक हो जाये तो छल ग्रहण नहीं करना। जैसे कि दुर्जन पुरुष, कई गुणों को नहीं देखता है, पर एक गलती को पहाड़ बना देता है।
प्रश्न किया - शुद्धात्मा क्या है ?
मनीषियो ! आचार्य भगवान् कुन्दकुन्द देव कह रहे हैं कि मिश्रधारा को गौण कर दीजिए, स्वभावधारा की ओर चलिए । स्वभाव में ज्ञायकभाव है, मिश्र में परभाव है। ज्ञायक, ज्ञायक है । मैं ज्ञायकस्वभावी हूँ। मैं प्रमत्त नहीं हूँ, मैं अप्रमत्त भी नहीं हूँ | जो ज्ञायकभाव न प्रमत्त है, न अप्रमत्त है । वह ज्ञायकभाव मात्र है, शुद्ध भाव।
मैं क्या हूँ ? मैं जो हूँ, सो हूँ। मिश्री मीठी है। मिश्री मीठी कैसी है ? जैसी है, वैसी है, नहीं मानो तो खा कर देख लो, कि कैसी है । आत्मा प्रमत्त नहीं है, आत्मा अप्रमत्त नहीं है, गुणस्थान की सोपाधिक दशा है। आत्मा तो 'जो सो दु सो चेव'। पानी में अग्नि की उपाधि है, इसलिए पानी गर्म दिख रहा है। पर यथार्थ बोलिए कि गर्मी पानी की है, कि अग्नि की है ? अग्नि गर्म है, कि पानी गर्म है ? अंगुली डालो तो पानी जला रहा है। फिर भी सत्य बताओ कि अंगुली को जला कौन रहा है ? उष्णता पानी का धर्म नहीं, अग्नि का धर्म है। भले ही उसके संयोग से पानी गर्म है, पर स्वभाव अग्नि का है, पानी का नहीं है। मैं प्रमत्त हूँ, मैं अप्रमत्त हूँ, यह दशा कर्मों के कारण है या स्वयं के अज्ञान के कारण? आत्मा तो ज्ञायकस्वभावी है। ऐसा चिंतन चतुर्थ गुणस्थान से ही करना होगा । उसके बिना ऊपर के गुणस्थान पर पहुँचेगा नहीं। चतुर्थ गुणस्थान से ज्ञायकभावी बनना पड़ेगा । ज्ञायकभावी बनना नहीं पड़ता, ज्ञायकभावी होता है। अग्नि उष्ण है, कि पानी उष्ण है ? उष्णता तो पानी की है। क्रोधादि दशाएँ हैं। ये पानी की नहीं, अग्नि की हैं। विभाव न होता तो कर्म-उपाधि न होती। कर्म उपाधि न होती, तो विभाव न होता। विभाव न होता, तो कर्म-उपाधि न होती। ये परस्पर का सौपाधिक संबंध है। और निरुपाधी दशा। आत्मा तो शीतल स्वभावी है। इसलिए सत्यार्थ बात को समझिये । वर्तमान में तेरी आत्मा स्वभाव से त्रैकालिक शुद्ध है । भटकना नहीं । नय लगा दो तो न्याय होगा । हे मनुष्य ! जिसे मैं पुकार रहा हूँ, वह सुननहार मिश्रधारा है । हे पुरुष ! जो तू है, वह अमिश्रधारा है।
अस्तिपुरुष चिदात्मा ...........
जो अस्तिपुरुष है, वह स्पर्श-रस-गंध-वर्ण से शून्य है। इसलिए जब हम 'पुरुष' को देखते हैं तो त्रैकालिक शुद्ध है । जब हम मनुष्य को देखते हैं, तो अशुद्ध है । हे मुमुक्षु ! स्वर्ण को निहार । किट्टिमा से युक्त होकर भी सोना त्रैकालिक शुद्ध है, क्योंकि किट्टिमा मल है, किट्टिमा सोना नहीं है। कर्म मल है, कर्म सोना नहीं है। सोना भगवती आत्मा है, जो त्रैकालिक शुद्ध है। लेकिन उस शुद्धि को ज्ञायकभाव से जानना। पर जो किट्टिमा लगी है, उसको हटाना। उसके लिए चरणानुयोग चाहिए। समयसार से जानो, त्रैकालिक शुद्ध है। जैसे मंद धौकनी से किट्टिमा अलग कर दी जाती है सोने से, ऐसे ही मंद ध्यान की धौकनी से कर्मकिट्टिमा पृथक् कर दी जाती है आत्मा से । पर आत्मा कैसी है? जैसे हस्तिनी का मूत्र, सीसा, जस्ता, ताँबा और
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