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________________ समय देशना - हिन्दी ४६ है, ये तो माध्यस्थ्याभावी (वीतरागियों) का मार्ग है। ये उपेक्षा का मार्ग है। अच्छा बताओ जिसकी मैंने आशा की और मालूम चल गया, कि पूरी होगी नहीं। जैसे आप भजन बोलने आये, परन्तु दूसरे ने सुना दिया, अब आपको अंतरंग से कैसा लग रहा है ? बताओ कि भजन करना था, कि भजन 'बोलना था ? भजन करना होता, तो निराशा नहीं आती। चूँकि भजन सुनाना था, अतः चेहरा उतर गया। मंगलाचरण तो कोई करता नहीं है, भूल गये सब । मंगलाचरण का अर्थ होता है कि किसीन-किसी परमेष्ठी की वंदना आना चाहिए, तब मंगलाचरण होगा और जब तक परमेष्ठी का मंगलाचरण नहीं किया, तब-तक भजन तो हो जायेगा, पर मंगलाचरण नहीं होगा। भले णमोकार पढ़ो, पहले णमोकार पढ़ लो, फिर भजन सुना दो। ___ ध्यान दो, मोक्षमार्ग में आशा नहीं होती, भावना होती है, और विषय-कषायों में आशा होती है। सम्यग्दृष्टि जीव मोक्षमार्ग की सराग अवस्था में भावना (बारह भावना, सोलहकारण भावना, वैराग्य भावना) तो भाता है, आशा नहीं करता। वीतराग अवस्था में भावना नहीं भाता है, वीतराग अवस्था की अनुभूति लेता है। निराशा भी आशा है। जब निराशा आती है तो अंतरंग में निरीह भाव आता है, सरसता समाप्त हो जाती है। निरीहता तो आई है, पर निरसता के साथ आई है। ज्ञानियो ! वीतरागता निरीह तो होती है, पर नीरस नहीं होती। इसमें निज का रस चलता है। आपको भजन बोलने की इच्छा थी, पर बोलने को न मिले, उस दिन कितना संक्लेशित होता है कि मैंने कल ही नाम लिखा दिया था, फिर भी मेरे से आज बोलने को क्यों नहीं कहा गया। यह बोलने की आशा ही तो विषयाशा है। इस आशा ने तेरा विश्वास हटा दिया, एक क्षण को संचालक के प्रति कुभाव आ गये । जो जीवद्रव्य था, उस जीवद्रव्य के प्रति अशुभ भाव आ गये । आप समझ रहे थे कि मात्र भजन कहने को नहीं मिला, सो सोच रहा हूँ, पर उस समय तेरे वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम का दुरुपयोग हुआ, तेरे ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम का दुरुपयोग हुआ, तेरे दर्शनावरणी कर्म के क्षयोपशम का दुरुपयोग हुआ, तेरी आयु का किस तरह व्यय हो रहा था, उस पर ध्यान ही नहीं दिया। जब तुम ये सोच रहे थे, कि मेरे से बोलने को क्यों नहीं कहा गया, उस काल में तेरी आयु नष्ट हो रही थी कि नहीं? एक रुपये को तो संभालकर चलता है कि उसका प्रयोग कहाँ करना है, परन्तु तू भूल गया था इस आयुकर्म के निषेकों को । उसका उपयोग तूने कहाँ कर डाला विषयाशा में ? मोक्षमार्ग में आना, लेकिन मोक्षमार्गी का चिन्तन लेकर आना । बड़ा कठिन है। कितना क्षयोपशम चाहिये परिणामों को विशुद्ध रखने के लिए । प्रशस्त अध्यवसाय भाव रहें, अप्रशस्त अध्यवसाय भावों का अभाव हो, उसके लिए आपको प्रज्ञा चाहिए। दो साधु के पुण्य-पाप में अंतर होता है कि नहीं? जो जीव यतिसंघ में आकर भी यतिसंघ में नहीं रह पा रहा है। भैय्या ! मन से प्रश्न करो, मन में। उसकी प्रज्ञा का विवेक नष्ट हो गया है । क्यों ? उसने मुनि बनने की आशा की थी, उस मुनिलिंग के भेष की आशा ने इसे मुनि बनाया है। ये भी राग था। अच्छा लगता है। मुनिलिंग पर विश्वास होता तो ज्ञानी यह कहता कि पुण्य-पाप-प्रकृति पुद्गल की है, इसमें यश और अयश आत्मा के धर्म नहीं हैं। संघ में आकर भी तुम संग में क्या लाये हो, ये तो बताओ। जहाँ भी जाओगे, किसी भी संघ में, पर तुम्हारे संग में जो होगा, फलित होगा। आप मुनिसंघ में आये थे, पर ये क्यों भूल गये थे कि मैं संघ में पूर्व का अयश लेकर आया हूँ तो यहाँ भी मुझे अयश ही मिलेगा, यश नहीं मिल पायेगा। और For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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