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________________ ४५ समय देशना - हिन्दी होने पर माँ उसको कड़वा चिरायता पिलाती है, पर वह अज्ञानी बेटा चिरायते के कड़वेपन को तो जानता था, पर चिरायते के फायदे को नहीं जानता है । माँ पिलाना चाहती है, वह मुख बन्द करता है। ऐसे ही माँ जिनवाणी ने आपके एकत्व-विभक्त स्वरूप को बताने का बहुत पुरुषार्थ किया है, गुरुओं ने भी समझाया, लेकिन आपने विषयों की मिठाइयाँ अनादि से खाई थीं, तो चिरायता देखकर आपको डर लगता है। वो सुनना भी पसंद नहीं करता, समझना भी पसंद नहीं करता। वो तो काललब्धि आ गई, सो तुम सुन रहे हो, अन्यथा आप तो समयसार का नाम सुनते ही यों कहते कि ये निश्चयवालों का ग्रन्थ है। जबकि ये निश्चय शुद्धात्मा की प्राप्ति का ग्रन्थ है, निश्चयनय वालों का नहीं है । ये चैतन्यस्वरूप की प्राप्ति का उपाय बतानेवाला ग्रंथ है। और यहाँ तक भूल हो गई, कि निर्ग्रन्थों ने इसे पढ़ना बन्द कर दिया जबकि आचार्य कुन्दकुन्द देव ने स्वयं लिखा है। "जिनलिंग को स्वीकार किया, पर निजलिंग पर भाव नहीं गया' देहाश्रित लिंग में ही अपने आपको मोक्षमार्गी मान लिया और जिसने चिद्रवरूप की बात की, उसे आपने निश्चयाभासी कह दिया। पकड़ो तत्त्व को । ऐसा आपके बीच में होता है, और हो रहा है, इस ग्रन्थ को पढ़ने के लिए निर्ग्रन्थ मुद्रा धारण करने के उपरान्त भी। एक ऐसा ज्ञानी जीव मिला, कहता है कि, महाराज ! मैं आपकी बात को समझता तो हूँ, लेकिन मैं आप जैसी बात करूँगा, सुनूँगा, अध्ययन करूँगा, तो ध्रुव सत्य यह है कि जिसे मैं करना चाहता हूँ, वह छूट जायेगा । मुझे एक संस्था चलानी है। यदि में समयसार की संस्था में लग जाऊँगा तो उस संस्था को मैं चला नहीं पाऊँगा । क्यों ? इसमें राग चाहिए है, और समयसार एकत्व-विभक्त स्वभाव की बात है। कितना भोला जीव था? __संस्था चलाओगे तो, विश्वास रखना, वहाँ समयसार बहुत दूर है। बस ध्यान दो, लिंग तो लिंग है, लिंग 'लिंगी' नहीं है, अलिंगी की प्राप्ति के लिए लिंग धारण करना पड़ता है। पर लिंग में लिप्त हो गया तो लिंगी मिलनेवाला नहीं है। यह जिनलिंग जिन बनने के लिए है, जिनलिंग ढोने के लिए नहीं है । जिनलिंग स्वीकार करके देह आश्रित क्रिया में ही मोक्ष मान लिया, मोक्षमार्ग मान लिया । तू भेषों को तो ढोता रहेगा, लेकिन जिनलिंग को प्राप्त करके जिन नहीं बन सकेगा। ___ 'वासना' शब्द का जब भी प्रयोग होता है, तो ये जीव स्त्री-पुरुष के संबंध पर पहुँचते हैं, इसके आगे नहीं जाना चाहते हैं। वासना का अर्थ पशुवृत्ति मात्र नहीं है। यदि पूजा, प्रतिष्ठा की भावना है, वो भी वासना ही है । वासना यानी विषयों की आशा । पाँच इन्द्रिय के विषय सत्ताईस हैं। उसमें मन और जोड़ दीजिए तो अट्ठाईस हैं। देखने की इच्छा भी वासना, सुनने की इच्छा भी वासना, सूंघने की इच्छा भी वासना, स्पर्श की इच्छा भी वासना है। मेरे पुद्गल का प्रकाशन हो रहा है, ये भी है वासना । मेरे पुद्गल का नाम लिख जाये, ये भी है वासना। किसी पर दृष्टि नहीं डालना है, मात्र तत्त्व समझना है। आप जब निर्ग्रन्थ बनें, इतनी बातों का ध्यान रखें कि वासना का अर्थ स्त्री-पुरुष का संयोग मात्र नहीं है। वासना का अर्थ है विषयाशा, और विषयाशा यानी जितने पाँचेन्द्रिय के विषय बनते हैं वे सभी विषयाशा हैं। अब हृदय से पूछो कि आशा गई या नहीं गई। आशा को छोड़कर आये, फिर भी आशा को लेकर आये । निराशा भी आशा ही है, क्योंकि आशा की पूर्ति नहीं हो पाई, इसलिए निराशा है। मोक्षमार्ग निराशाओं का मार्ग नहीं है, मोक्षमार्ग आशा का मार्ग नहीं है। आशावान जिसकी पूर्ति होती है, वह हंसता है; निराशावान जिसकी पूर्ति नहीं होती, वह रोता है। हे ज्ञानी ! ये आशावादियों या निराशावादियों का मार्ग नहीं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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