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________________ ४१ समय देशना - हिन्दी । एकसाथ विषयभोग व स्वानुभूति । इस सिद्धांत का उद्भव कहाँ से हुआ है, आप सब समझते हो। आया कहाँ से है ? कुन्दकुन्द देव तो नहीं कह गये, विश्वास रखिये। जहाँ से आप सिद्धांत लेकर बैठे हो, ज्ञानी ! मुझे अच्छे से मालूम है । मैं कर्नाटक में था, कर्नाटक में बुन्देलखण्ड का ज्ञानी पहुँचा, उन्होंने 'हओ' कहना नहीं छोड़ा। सभी एक-से दिख रहे थे। मैंने पूछा- क्यों, ज्ञानी ! बोले - हओ महाराज ! मैं समझ गया कि ये बुंदेलखण्ड के हैं। विश्वास रखो, जो जीव जिस सिद्धांत से आता है, वह वैसा ही कहता है। "पराभिप्रायनिवृत्यशक्यत्वात्" ॥७॥राजवार्तिक | दूसरे का अभिप्राय बदलना बड़ा कठिन होता है। कहीं-न-कहीं अपनी 'हओ' रख देता है। भले ही समयसार का अध्ययन किया हो, पर जो सिद्धांत चला आ रहा था, 'वस्त्रधारी को मोक्ष, स्त्री पर्याय में मोक्ष' वह कहीं-न-कहीं स्पर्श कर रहा था। मैं श्वेताम्बर ग्रंथ कल्पसत्र से कह रहा हूँ - 'माँ ने विचार किया कि मुझे कैवल्य हो ही गया, अब तो मुझे जैनेश्वरी दीक्षा ले लेना चाहिए।' अब आप बताओ कि दीक्षा की आवश्यकता क्या है ? आप दिगम्बर हो, इतने तो समझदार हो, कि कार्य के लिये कारण तो खोजे जाते हैं, पर कार्य होने पर कारण की खोज ? पुत्र होने के बाद गर्भाधान नहीं किया जाता है, संतान के लिए गर्भाधान किया जाता है। जब बिना गर्भाधान के संतान होने लगी, तो पाप करने की क्या आवश्यकता है? हे मुमुक्षु ! ध्यान दो, जब कैवल्य हो गया, फिर दीक्षा की आवश्यकता क्या थी? इसी प्रकार से जब निश्चय रत्नत्रय हो गया, अब व्यवहार रत्नत्रय की क्या आवश्यकता है? "मूर्छा परिग्रह" सूत्र है न, इस सूत्र के साथ खिलवाड़ किया गया है । कुछ भी स्वीकार करते जाओ, और धीरे से कह दो कि मेरी मूर्छा नहीं है। यानी सेवन कर रहा है, मस्त है, और कहता है कि मेरी मूर्छा नहीं है । हे मुमुक्षु ! जहाँ-जहाँ परद्रव्य को स्वीकारेगा, वहाँ-वहाँ मूर्छा होगी। जहाँ-जहाँ द्रव्य होगा, वहाँ-वहाँ मूर्छा होगी। जहाँ-जहाँ द्रव्य नहीं हैं, वहाँ मूर्छा हो भी सकती है, नहीं भी हो सकती है । कपड़े को स्वीकार किया कि कपड़े ने स्वीकारा है? इन वस्त्रों को इस तन ने स्वीकार किये हैं, कि चैतन्य ने किया है? तन ने स्वीकार किया, यानी मुर्दा भी स्वीकार करता है? इन वस्त्रों को तन ने स्वीकार नहीं किया. चैतन्य ने स्वीकार किया है। तन स्वीकार करने लग जायेगा. तो मर्दे को भी अशन, वसन चाहिए पडेंगे । और शुद्ध चैतन्य भी स्वीकार नहीं करता। यदि शुद्ध चैतन्य स्वीकार करेगा, तो सिद्धों को भी करना पड़ेगा । तन स्वीकार नहीं करता, शुद्ध चैतन्य स्वीकार नहीं करता ? तन व चैतन्य की मिली-जुली सरकार स्वीकार कर रही है। ये मिश्र धारा है, यानी जीव की विभावदशा। आप अच्छे से जानते है, कि दो पार्टियों की सरकार कभी भी भंग हो जाती है। इसलिए मेरी बात मान लो, एक को छोड़ो, दूसरे को पकड़ लो । तन को छोड़ दीजिए, चैतन्य को पकड़ लीजिए। दो की भंग होगी। समान जाति व असमान जाति कहाँ एकसाथ रह पाते हैं । स्वजाति में निवास करो, विजाति को छोड़ दो । देखो ! मैं आपको प्रेम से बताये देता हूँ| विजाति के साथ कितना भी प्रेम हो जाये, लेकिन मन में कसक रहती है, कि यह मेरी जाति का नहीं है। तुम कितने ही सुंदर रह लेना, लेकिन जब जाति की बात आयेगी तो कहोगे, ये तो पुद्गल की जाति का है । क्यों ? इसका धर्म स्पर्श, रस, गंध, वर्ण भिन्न है, जबकि मैं ज्ञानदर्शन स्वभावी हूँ। इसलिए इतना ध्यान रखो, वाहन पर बैठ लो, पर उस पर बैठे नहीं रहो। वाहन पर ज्ञानी पुरुष बैठने नहीं जाता, वाहन पर बैठकर आता है। ऐसे ही तन-पिंजड़े पर बैठकर साधना कर लो, पर इसकी यानी शरीर की साधना के लिये साधना मत करना । अशरीरी आत्मा की साधना के लिए शरीर की साधना करना। विश्वास रखना, एक दिन भी तत्त्व समझ में आ जाये तो अनंतकाल का अतत्त्व चला Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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