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समय देशना - हिन्दी
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तक कारण-समयसार है, तब-तक गुणस्थान है और जब कार्य - समयसार होगा, वह गुणस्थानातीत है । चौदहवें गुणस्थान तक कारण-समयसार है और अशरीरी सिद्ध परमात्मा कार्य समयसार है । यह कारण कार्य भाव, सर्वत्र लगाकर चलना । क्योंकि व्याख्या एक बार हो जाये, फिर पुनः पुनः नहीं होती, लेकिन जो हो जाये वह ऐसी हो जाये, कि व्याख्या में फिर किसी को टिप्पणी की व्याख्या न करना पड़े।
प्रत्येक गुणस्थानकारण-कार्य भाव है। मिथ्यात्व गुणस्थान कारण - भाव है । भद्र मिथ्यादृष्टि का प्रथम गुणस्थान भी चतुर्थ गुणस्थान के लिए कारण है और चतुर्थ गुणस्थान कार्यभाव है । पारा चढ़ता है, उतरता है, नम्बर बताने के लिए कि कितना तापमान (टेम्परेचर) है। पर नम्बर से न चढ़ता है, न उतरता है; चढ़ता-उतरता परिणामों से है ।
आचार्य जयसेन स्वामी की टीका ने आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी की टीका के शब्दों को सरल किया है । पर यह सत्य है कि आचार्य जयसेन ने जो कह दिया है, वह प्रवृत्तिकारक होने से अकाट्य हो गया है । कितनी सुमधुर प्रौढ़ भाषा है। जब तक भेदरत्नत्रय नहीं होगा, तब तक अभेदरत्नत्रय नहीं होगा, यह भी ध्यान में रखना । बीच में एक बात बताऊँ। जो सर्वत्र में रत्नत्रय मानते हैं, वह वीतराग आम्नाय में नहीं है । क्योंकि जहाँ तक नियोग बना, हम लोगों ने जैनों के जितने साहित्य हैं, सभी को पढ़ा। धागे सहित धागे में ही जुड़ जाये, यह धागे वाले का भी सिद्धांत है । और चिरधागे में वह जुड़ता है, जो धागे को छोड़ देता है । अभेद रत्नत्रय हो जाये, और भेद रत्नत्रय न हो, यह त्रैकालिक सम्भव नहीं है । फल लगे कि फूल लगे, क्यों ? फल के लिए पुष्प लगते हैं, कि पुष्प के लिये फल लगते हैं ? णिच्छय ववहारणया, मूलम भेयाणयाण सव्वाणं ।
च्छिय - साहण- हेऊ, दव्वय-पज्जत्थिया मुणह ॥ आलाप पद्धति ॥
निश्चय का हेतु, निश्चय का साधन व्यवहार है । व्यवहार का साधन निश्चय नहीं होता है । जो यह कहने लग जाये कि निश्चय रत्नत्रय तो मुझे हो गया है, व्यवहार हो जायेगा, ज्ञानियो ! ऐसा दिगम्बर आम्नाय का सिद्धांत किंचित् भी नहीं है । जिसे आप निश्चय कह रहे हो, वह निर्णय है । पहले निर्णय होता है, फिर व्यवहार होता है । व्यवहारपूर्वक निश्चय में जाता है। आप यहाँ आये, कि पहले विचार किया ? पहले विचार किया। हम उस विचार को व्यवहार की भाषा में निश्चय बोलते हैं । हमने निश्चय कर लिया कि हमको प्रवचन सुनने जाना है । हकीकत में जो निश्चय है, वह पर्यायार्थिकनय से व्यवहार की भाषा का निश्चय है, सिद्धांत की भाषा का निश्चय नहीं है । यह यथार्थ में निर्णय था । निर्णयपूर्वक प्रवृत्ति की है, ये व्यवहार है। प्रवृत्ति का फल मिल गया है, इसका नाम निश्चय है ।
माँ मरुदेवी अपने भवन में विराजती है, पोता ( इस भरतक्षेत्र का चक्रवर्ती) अपने सिंहासन पर विराजता है। दादी माँ नयनों को सजल करती हुई कहती है, बेटे ! तू यहाँ पर राज्यवैभव का अनुभव कर रहा है, पर मेरा लाल, तेरा पिता जंगलों में भटक रहा है। 'माँ ! मेरे पिता प्रथम तीर्थेश जंगलों में नहीं भटक रहे हैं, वे कैलाश पर समवसरण में सुशोभित हो रहे हैं।' बेटे ! मेरे लाल को कैवल्य हो गया ? 'हाँ, दादी माँ ! प्रथम तीर्थंकर को कैवल्य हो गया । यह आपका सौभाग्य है कि आपका बेटा तीर्थंकर, पोता भरत चक्रवर्ती एवं अन्य पोते कामदेव व गणधर पद को सुशोभित कर रहे हैं।'
बेटा ! तुम मुझे समवसरण में नहीं ले जाओगे ? ' ले जाऊँगा ।' सुबह चक्रवर्ती अपने दल-बल के साथ जैसे ही दूर से समवसरण को निहारता है, बेटा तो देख ही नहीं पाया, माँ ने देखते-ही-देखते कैवल्य
प्राप्त कर लिया । (कल्पसूत्र से बोल रहा हूँ । स्त्री को केवली बना रहे हैं।) जब दादी को कैवल्य हो गया, तो उन्होंने विचार किया । केवली विचार कर रहे हैं। एक-एक शब्द को पकड़िये । आपके साथ यही हो रहा है
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