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समय देशना - हिन्दी इसलिए अश्रद्धा में मत चले जाना । पर ध्रुव सत्य है, जब भी आप मुनीश्वर बनेंगे, तो सबसे पहले समयसार को ही देखना। जितने दिन समयसार को निहार पाओगे, उतने ही दिन मुनिराज बनकर रह पाओगे, और जिस दिन समयसार को छोड़ देंगे, उस दिन काँच रह जायेगा, पर 'पारा' निकल जायेगा। थर्मामीटर का पारा निकल गया तो काँच किस काम का ? हे मुमुक्षु ! जिस मुनि की आत्मा से समयसार की भावना निकल गई, उस आत्मा में काँच तो रहा आयेगा, लेकिन पारा चला जायेगा। यह परम सत्य, ध्रुवसत्य परम भूतार्थ है। कई व्याख्यायें की हैं लोगों ने समयसार पर, प्रवचनकार ने प्रवचन किये हैं, लेकिन यथार्थ बताऊँ, उन प्रवचनों को भी हमने निहारा । अपनी बात ही कह पाये, लेकिन समयसार नहीं कह पाये । और यह वह आलोकित ग्रन्थ है, जिस ग्रन्थ में आचार्य कुन्दकुन्द देव की कारिका में 'गुणस्थान' शब्द नहीं मिलेगा, क्योंकि समयसार तो गुणस्थानातीत है।
मग्गण-गुणठाणेहि य, चउदसहि हवंति तह असुद्धणया।
विण्णेया संसारी, सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया ॥द्रव्य संग्रह||१३|| मार्गणा व गुणस्थान की विशेष प्ररूपणा तो सिद्धान्तचक्रवर्ती आचार्य नेमिचन्द्र देव ने की है। आयुकर्म स्वतंत्र है, बुढ़ापा स्वतंत्र है। निश्चयनय से कहूँ, व्यवहारनय से कहूँ, दोनों नयों से कह लेता हूँ। व्यवहारनय से तूने मनुष्य जाति नामकर्म का बंध किया । उस मनुष्य जातिनामकर्म से तुझे मनुष्य जाति मिली। उस मनुष्य आयुकर्म से मनुष्य आयु मिली है। जीव इन दो कर्मों से प्रेरित होकर यहाँ बैठा है। पर इन दो के बीच में भी तुझे साता नहीं मिली। उसमें पहले से ही जन्म, जरा, मृत्यु रूपी घुन लगा कर आये थे। ये तीन रोग साथ में लेकर आया और इन तीन रोगों का जब तू वेदन करता है तो बूढ़ा भी होता है, युवा भी होता है, शिशु, किशोर भी होता है, तब इन तीनों को जब ज्ञायक भाव से निहारता है, तो तू परभाव है। भावश्रुत निजभाव है फिर तू यों कहना -
न मे मृत्युः कुतो भीति, न मे व्याधिः कुतो व्यथा ।
नाहं बालो न वृद्धोऽहं, न युवैतानि पुद्गलेः ॥२६॥इष्टोपदेशा। हे ध्रुवपिण्ड चेतन भगवान् आत्मा ! जब तू द्रव्यत्व को निहारता है, तो मैं न बाल हूँ, न वृद्ध हूँ, न युवा हूँ। ये पुद्गल की धाराएँ हैं। मैं तो चित् चैतन्य पिण्डरूप भगवान् आत्मा हूँ। मेरी मृत्यु ही नहीं है, तो भय किस बात का ? ऐसा ध्यान करेगा, तो शब्दों की अनुभूति ले रहा है। जब अन्दर में यथार्थ में बैठ जायेगा, तब सबकुछ होते हुए भी तुझे सबकुछ नहीं दिखेगा, शिव ही दिखेगा। और जब-तक सबकुछ दिखता रहेगा, तब तक सब ही दिखेगा, शिव नहीं दिखेगा। शिव देखना है तो सब देखना बन्द करो, और सब देखना है तो शिव देखना बन्द हो ही जाता है। अब तो जबलपुर की आत्माओं के भाग्य हैं कि भले वहाँ नहीं पहुंच रहे, परन्तु सुन रहे हो, तो इतना तो समझ रहे हैं, कि योगी का धर्म और ही है। इस तत्त्व को नहीं समझते हो न, तो विश्वास रखना, तूझे मुनि के एक पक्ष से शून्य ज्ञान था, क्योंकि शरीर के मुनिराजों को हमने हमेशा से जाना, हमेशा से देखा है, पर चिद्स्वरूप मुनि के दर्शन का मानस अब तूने बनाया है।
एक सज्जन बोले- आपने 'तत्त्वसार' पर प्रवचन किया। लगता नहीं कि 'तत्त्वसार' है, वह तो 'समयसार' लगता है। हमने कहा- ज्ञानी ! ऐसा है कि 'तत्त्वसार' की व्याख्या सामान्य श्रोताओं के बीच में नहीं हुई, जहाँ मुमुक्षओं का परमस्थान हो, वे अपने आपको समयसार के अलावा कुछ सुनना ही नहीं चाहते
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