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________________ समय देशना - हिन्दी ३१५ से वेदन करता है, वह है शुद्धानुभूति । ध्यान रखना, ज्ञान से ज्ञान की अनुभूति ही शुद्धात्मानुभूति है, ऐसा जानना। ॥ भगवान् महावीर स्वामी की जय ॥ dag जो शुद्ध स्वानुभूति है, वह अखण्ड है, जो स्वानुभूति है, वह अखण्ड है क्या ? स्वानुभूति का भी खण्ड होता है । छठवें गुणस्थान तक शुद्ध धर्म्यध्यान नहीं है, शुद्ध धर्म्यध्यान सप्तम गुणस्थान से प्रारंभ होता है। अब प्रश्न करो कि वहाँ पर शुद्ध धर्म्यध्यान का निषेध क्यों किया ? जहाँ जिस आत्मा के परिणामों में अन्य कोई ध्यान घटित न होता हो, वह शुद्ध है। छठवें गुणस्थान तक आर्त्तध्यान होता है। उस आर्त्तध्यान के कारण धर्म्यध्यान तो है, लेकिन शुद्ध धर्म्यध्यान नहीं है, इसकी धारा बीच की क्यों आ रही है? सप्तम गुणस्थान में किसी आर्त, रौद्र का पाया नहीं है, इसलिए शुद्ध धर्म्यध्यान है, यही कारण है, जैसे यहाँ पर शुद्ध धर्म्यध्यान को कहाँ, सप्तम गुणस्थान में, वैसे ही यहाँ एक शब्द प्रारंभ कीजिए। अखण्ड आत्मानुभूति अध्यात्म का शब्द है, अखण्ड चिपिण्ड ज्ञायक परम पारणामिक जो स्वभाव है, परमानन्द शालिनी चैतन्य मालनी भगवती आत्मा जो है, वह अखण्ड स्वरूप है। खण्ड किस बात पर किया ? शुद्ध अखण्ड श्रुत ज्ञान यही है। शुद्धात्मानुभूति से प्रयोजन क्या है? पर ज्ञेय को बीच में लाना ज्ञान का खण्डपना है, निज ज्ञान में पर ज्ञेय को नहीं आने देना। निज ज्ञान में, निज ज्ञान से, निजज्ञान में ही जानना अखण्ड श्रुत ज्ञान की धारा है। किसने किसको जाना ? निज ज्ञान ने निज ज्ञान को, निज ज्ञान के द्वारा, निज ज्ञान के लिए, निज ज्ञान से ही जो जाना वह अखण्ड श्रुतज्ञान की धारा है । वह जो अखण्ड श्रुतज्ञान की धारा होगी, वह प्रत्यक्ष आत्मानुभूति है, और ये व्यवहार पक्ष वाले विद्वान् इस बात को मानने को तैयार नहीं हैं । लेकिन इसको स्वीकार किये बिना, कभी भी वस्तु स्वरूप की अनुभूति संभव नहीं है। जो परोक्षज्ञान 'आद्येपरोक्षम' सूत्र कह रहा है, वह सिद्धान्त अपेक्षा है। परन्तु जो श्रुत ज्ञान है, आत्मा से भिन्न नहीं है, ज्ञान आत्मा ही का धर्म है, वह अखण्ड है, और प्रत्यक्ष है स्वात्मानुभूति, इसलिए यहाँ कहना प्रत्यक्षानुभूति। कल आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी ने दृष्टान्त दिया था शुद्ध नमक की डली और व्यंजन मिश्रित नमका आविर्भाव, निरोभाव । अहो, इसमें कभी नमक को सामान्यरूप से ग्रहण किया, कभी मिश्र रूप से ग्रहण किया, पर कभी शुद्ध डली का स्वाद लिया कहाँ ? व्यंजन में मिश्रण करके ही तो लिया है स्वाद नमक का अलग से नहीं चखा। इसलिए दो मिश्र धारा में नमक का स्वाद नहीं लिया। जो जीव पंचपरमेष्ठी का ध्यान कर रहा है, जिसे श्रावकाचार व मूलाचार धर्म्यध्यान कह रहे हैं, और समयसार वहाँ परगत तत्त्व कह रहा है द्वैतभाव है। क्योंकि आपने वहाँ दो को लेकर अनुभव किया है। जो धर्म्यध्यान आप कर रहे हो न, भगवान महावीर स्वामी की जय हो, भगवान महावीर स्वामी की जय हो, इसमें आप त्रिशला के बेटे के पास पहुँचे, फिर उनकी जय बोलने का शब्द पकड़ा, आपने उनके शरीर को देखा । कहीं गोरे कहा, कहीं साँवले कहा। कही हरा कहा, ये सब आप पर्याय की बात करते रहे; लेकिन यह जो अनुभूति है, वह भी आनंद था, लेकिन यह वह अनुभूति नहीं है, जो आत्मा के एकत्व विभक्त्व स्वानुभूति है। इस स्वानुभूति में न वह हेय को ज्ञेय बनायेगा, न ज्ञेय को ज्ञेय बनायेगा, न उपादेय को ज्ञेय बनायेगा, जो निज शुद्धात्मा परम ज्ञेय रूप उपादेयभूत है, उसे ही ज्ञेय बनायेगा और ज्ञेय के विकल्प से ही शून्य होगा। फिर वहाँ मात्र एक शब्द बचेगा, 'अप्पा अप्पम्मि रओ' आत्मा को आत्मा में ही रमण कराना। अभी तक आपने जो समयसार सुना, उसमें ऐसा होना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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