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समय देशना
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हिन्दी
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कि रोटी बोल रहा है।
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प्रत्यक्ष ज्ञान का ज्ञान हो नहीं सकता, जब तक अनुमान नहीं होगा । पानी से प्यास बुझती है, क्यों ? अनुमान से । इसलिए जो व्याख्यान यहाँ चल रहा है, उसकी प्राप्ति बहुत कठिन है। आज मैं कह रहा हूँ क्योंकि नमक की शुद्ध डली का स्वाद नहीं चखा, मिलाकर खाने की आदत है। ज्ञान को ज्ञेयों से जानने की आदत पड़ गई है। ज्ञान को ज्ञान से जानो, उसका नाम शुद्धोपयोग है। ज्ञान से मात्र ज्ञान को जानना, उसके लिए घंटों नहीं, बहुत समय लगता है। जैसे ही पर- ज्ञेय आये, तुरन्त हटाओ । कैसे ? विधि यह है कि तालाब में पानी पीने गये, पानी में शैवाल छाई थी, आपने दोनों हाथ से जल्दी से एक तरफ किया और तुरन्त अंजुली भर ली। वैसे ही शुद्ध ज्ञान से ज्ञेय को जानना है । जैसे ही ज्ञेय आये, उसको धक्का मारना, और अपने ज्ञान से ही जानना । वही ज्ञान प्रमाण होगा, प्रमिति होगी, प्रमेय व ज्ञप्ति होगी, यही शुद्धोपयोग की दशा है। जीव है, अजीव है, तत्त्व है, पदार्थ है इत्यादि शब्द ज्ञान में आना, ही ज्ञेय का मिश्रण है । जैसे आपने उत्कृष्ठ ब्रह्मचर्य की भाषा सुनी मेरा ब्रह्मचर्य है, ये मेरी बहिन के समान, ये मेरी माँ के समान है, ये बेटी के समान है अभी ब्रह्मचर्य नहीं है। मैं ऊँची बात कर रहा हूँ, भटक नहीं जाना। यानी ये बेटी के समान है, इसका मतलब ये शब्द तेरे दिमाग में आ रहा है तो कहीं-न-कहीं अब्रह्मभाव है। ये मानता हूँ का मतलब क्या है? सेवन नहीं कर रहा, ये भी पक्का है मानता हूँ, मतलब तुम्हारे मन में द्वैत भाव है। जब अद्वैत ब्रह्म लीन होगा, मैं ब्रह्मचारी हूँ ये शब्द का भी समापन होगा। फिर आचार्य कुन्दकुन्द की गाथा बोलना सव्वंगं पेच्छं तो, इत्थीणं तासु मुयदि दुव्भावं । सो ब्रह्मचेरभावं सक्कदि खलु दुद्ध धरि दुं । ८० वा. पेक्खा ॥
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जो स्त्रियों के सम्पूर्ण अंगों को देखते हुए भी विकार को प्राप्त नहीं होता है, सो ब्रह्मचारी है। घर में नारी नहीं है, फिर भी आँख बन्द किये नारी को देख रहा है। जो आँख खोलकर भी नारी को नारी रूप न देखे, उसमें भी 'अस्ति पुरुष चिदात्मा देखे, उसका नाम ब्रह्मचारी है । कम-से-कम अध्यात्म की उत्कृष्ट भाषा को ही सुन लिया करो । जो मैं वर्तमान में साधना कर रहा हूँ न, उसको छोड़ने की साधना जिस दिन शुरू हो जायेगी, उस दिन परम साधना होगी। आप साधना छोड़ मत देना। उस छोड़ने का मतलब मूल-उत्तर गुणों का पालन करते हुए भी अब उनके विकल्पों से शून्य हो जाओ, उसको भी छोड़ने का पुरुषार्थ करो । शुद्ध भाषा बोल देता हूँ जैसे कि आपको भोजन करने के लिए भी वह मन बनाना पड़ता है, ऐसे ही शुद्धोपयोग के लिए मन बनाना पड़ता है। ऐसे ही मूलोत्तर गुणों में लीन हूँ वह भी तो पर ज्ञेय की क्रिया में लीन हूँ, मन बनाना पड़ेगा, यानी अब मैं शुद्धात्मा का सविकल्प ध्यान करता हूँ। जो शुद्धात्मा का सविकल्प ध्यान करेगा, वही निर्विकल्प शुद्धात्मा को प्राप्त कर सकेगा, और जब तक सविकल्प शुद्धात्मा का ध्यान नहीं कर रहा है, तब-तक निर्विकल्प ध्यान नहीं होगा ।
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जैसे अनेक प्रकार के भोजन की सामग्री तैयार की, उसमें नमक मिला दिया। सामान्य-विशेष के तिरोभाव का अभाव किये बिना जो नमक का स्वाद ले रहा है, ऐसे लोक में अबुद्धि जीव व्यंजन के ही लोभी हैं, उसमें ही स्वाद को प्राप्त हो रहे हैं, उन्हें शुद्ध नमक का स्वाद चखने की आदत ही नहीं है। ऐसे ही आप पर- ज्ञेयों को ही ज्ञान मान बैठे हो, ज्ञान की शुद्ध डली को आपने जाना ही नहीं है। आप ज्ञानानुभूति ज्ञेयों अनुभूति लीजिए । सहयोग से शून्य होकर सामान्य के अविर्भाव
से ले रहे हो। ज्ञेयों से नहीं, ज्ञान से ज्ञान की
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