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________________ समय देशना - हिन्दी २७६ सत्य है कि दृष्टि ही बदल पायेंगे । वस्तु नहीं बदल पायेंगे, वस्तु का परिणमन अपने स्वभाव में त्रैकालिक है, तत्त्व के प्रति विपरीत श्रद्धान हो भी गया; तो उस विपरीत श्रद्धान से तत्त्व विपरीत नहीं होता। तत्त्व तो जैसा है, वैसा ही होता है। विपरीत श्रद्धान से आपकी परिणति विपरीत होती है। कभी डरना नहीं, भयभीत नहीं होना, कि, अहो ! इतने लोग विपरीत श्रद्धान करने लग गये, अब तत्त्व का क्या होगा ? निर्भय रहो। वे विपरीत श्रद्धान करके स्वयं का ही विपर्यास कर रहे हैं । तत्त्व कभी विपरीत होता नहीं है। आप हमारे तत्त्व को विपरीत करने के मद को भूल जाओ, आप हमारे तत्त्व का विपर्यास नहीं कर रहे हो, परन्तु हमारी आत्मा को आप विपर्यास करके अशुभ की ओर ले जा रहे हो। तत्त्व तो जैसा है, वैसा ही है। आप कभी खिन्न (दुखी) तो नहीं हो जाते, कोई जीव धर्म से पतित हो गया, तो कुछ लोग दुखी होने लगते है, कि अब धर्म का क्या होगा ? अरे भैया ! धर्म का कुछ नहीं बिगड़ा, उस अज्ञानी ने स्वयं का ही पतन किया है, धर्म तो पावन है। इसी सत्यार्थ को सत्यार्थ कहे और सत्यार्थ को असत्यार्थ कहे. ऐसा कहने वाला वहीं विपर्यास को प्राप्त हो रहा है, पर ज्ञानी। तत्त्व तो जैसा है, वैसा है। यह श्रद्धान कभी भूल मत जाना, इसे कभी छोड़ मत देना । इसी बात को आचार्य भगवान् जयसेन स्वामी कह रहे हैं । सम्यक् तत्त्व पर श्रद्धान करना ही सम्यक्त्व है। मिथ्यातत्त्वों पर श्रद्धान् करना सम्यक्त्व नहीं है। उन तत्वार्थों का सत्यार्थ तो यह है, कि तत्त्व तो सत्यार्थ ही है। पर सत्यार्थ तत्त्व का किसी ने विपर्यास करके कथन कर दिया हो, तो उस विपरीत कथन पर श्रद्धान नहीं कर लेना। यह है सम्यक तत्त्व । उस जीव तत्त्व में विश्व के सम्पूर्ण जीव आ गये। अजीव तत्त्व में जगत् के सम्पूर्ण अजीव आ गये। दो ही तत्त्व हैं। अब उन दो तत्त्वों का ऐसा विपर्यास कर देना, जीव की उत्पत्ति पृथ्वी, जल,अग्नि, वायु इन चार भू चतुष्टय से कहने लग जाना यह तत्त्व का विपर्यास है। ऐसे श्रद्धा नहीं कर लेना । अथवा जो सात तत्त्व जिनागम में कहे है; उन सात तत्त्वों की परिभाषा को विपरीत कर दे कोई, जो जो कथन विपरीत किया है, उस कथन पर श्रद्धान नहीं कर लेना। दस इन्द्रियाँ गिनाई लोगों ने, जबकि पाँच इन्द्रियों में दस इन्दियाँ समाविष्ट हैं। एक स्पर्शन इन्द्रिय को ही लोगों ने कितने भागों में बाँट दिया। इस प्रकार ये विभिन्न लोगों ने अपने-अपने अनुसार तत्त्वों की प्ररुपणा की है। उन तत्त्वों की प्ररुपणा को सुनकर ज्ञानी जीव भटक न जायें, इसलिए कुतत्त्व कह दिया । लेकिन ध्यान रखना, स्वभाव दृष्टि से तत्त्व तो तत्त्व ही है, तत्त्व के दो अर्थ हैं, तत्त्व यानी स्वरूप, तत्त्व यानी परमात्मा । जो पदार्थ का स्वरूप है, वह तत्त्व है, परन्तु परमात्मा अर्थ कैसे निकलेगा, जीव द्रव्य है, उसका स्वभाव शुद्ध स्वभाव है, कर्मातीत है। जीव द्रव्य की जो कर्मातीत पर्यायें हैं, वही तो परमात्मा है । शुद्ध पर्याय ही जीव का शुद्ध कार्य है शुद्ध पर्याय ही पुद्गल द्रव्य का शुद्ध कार्य है, जीव की पूर्व क्षणवर्ती पर्यायें कारण है, और उत्तरक्षणवर्ती पर्यायें कार्य है । भद्र मिथ्यात्व कारण है, और सम्यक् का प्रगटीकरण कार्य है । पूर्वक्षण, उत्तरक्षण, पूर्व पर्याय, उत्तर पर्याय । जो पूर्व पर्याय है, वह कारण समयसार है, और जो उत्तर पर्याय है, वह कार्य समयसार है। अरहंत-अवस्था कारण-समयसार है, सिद्ध-अवस्था कार्य-समयसार है । मिथ्यात्व गुणस्थान में भी कारणपना है। ऐसा क्यों ? भद्र मिथ्यादृष्टि की जो कषाय की मंदता है, परिणामों की विशुद्धता है, वही सम्यक्त्व का कारण है, न कि मिथ्यात्व कारण है। यदि समयसार जैसे गंभीर तत्त्व को समझ रहे हैं तो किसी भी जीव के प्रति अशुभभाव नहीं लाना। यही कारण बन कर कार्य के रूप में परिणत होगा। हे भगवान आत्मा ! जो मारीचि था, वही तो महावीर बना है। मारीचि की पर्याय और परिणाम अशुभ थे, द्रव्य वही था। उस द्रव्य के प्रति अशुभ भाव मत लाइये, वह Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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