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________________ समय देशना - हिन्दी २७५ जीवभाव से परिणाम को हटा दो, यहाँ भाव का अर्थ पदार्थ लेना है । जो संसार में जीव नाम का पदार्थ भव्यत्व रूप में था, वह सिद्धत्व रूप में आ गया, शुद्ध व्यञ्जन पर्याय में आ गया। यह भाषा बोल रही है। न आया, न गया; जो विभाव भाव था, वह नष्ट हो गया, और जीव वही है। जो मिट्टी का लोंदा था, वह ईंट में आ गया । आया कि गया ? न आया, न गया ; परिवर्तित हो गया । जो आत्मा विभाव में थी, वह आत्मा स्वभाव में आ गई। न आया, न गया, नही बदला। जीव का विनाश नहीं हुआ। भाव पर्याय नाम की कोई पर्याय नहीं है। भावइन्द्रिय, द्रव्यइन्द्रिय । उसका ही हम पर्याय में उपचार करें, तो जो संसारी जीव हैं, वही संसारी जीव मुक्ति को प्राप्त होता है। तो जो संसार की पर्याय थी, वह असमान-जाति पर्याय परिपूर्ण समाप्त हो चुकी है। पहले व्यञ्जन को नष्ट करा दो। अब चलो भाव पर । जब तक मोह था, राग था, तब तक भाव था, विभाव था। राग गया, मोह गया, भाव इन्द्रियाँ भी गई। अरहंत के द्रव्यइन्द्रियाँ तो होती है, परन्तु भाव इन्द्रियाँ पहले गई। भाव इन्द्रियाँ समाप्त तो भव समाप्त, वैसे ही द्रव्य इन्द्रियाँ समाप्त। मोह समाप्त होते ही भाव इन्द्रियाँ समाप्त। और भव समाप्त होते ही द्रव्य इन्द्रियाँ समाप्त। अब प्रश्न यह है इनका, कि सिद्ध भगवान पर्याय कहाँ से देखेंगे? प्रागभाव का अर्थ है कि भविष्य की पर्याय का वर्तमान में अभाव । यदि भविष्य की पर्याय का वर्तमान में अभाव नहीं मानोगे, तो कार्य अनादि से सिद्ध है, फिर करने की क्या आवश्यकता? और प्रध्वंसाभाव कह रहा है, कि जब वर्तमान पर्याय नष्ट नहीं होगी, तो भविष्य की पर्याय होगी कैसे ? प्रध्वंसाभाव ने संसार का नाश करा दिया और प्रागभाव ने सिद्ध पर्याय को प्रकट करा दिया। अब वह जीव द्रव्य में त्रैकालिक परिपूर्ण रहेगी जो संसार में था, उस संसार पर्याय का प्रध्वंसाभाव, सिद्धपर्याय का प्रागभाव । जो सिद्ध बन गया, अब उसमें चार अभाव लगेंगे, कि नहीं? ऐसा प्रश्न करो। अवतार नहीं हुआ। नया जन्म माने, जो जीव को त्रैकालिक न माने । केवली भगवान के ज्ञान में सब झलक रहा है, भूत-भविष्यत त्रैकालिक पर्यायें । जो पर्याय नष्ट हो चुकी हैं, वे हमारी आत्मा के लिए नष्ट हो गई है, पर केवली के ज्ञान के लिए नहीं नष्ट हुई । अगर आप इसे किंचित भी मानोगे, तो सिद्ध पर्याय में अशुद्ध पर्याय मानना पड़ेगी । प्रध्वंसाभाव कर दिया, अन्योन्याभाव हो गया प्रागभाव हो गया । अब अत्यन्ताभाव । कर्मों का आत्मा से अत्यन्ताभाव हो गया है, तब सिद्ध बना। फिर झलकेगा किसके आश्रय से ? हे ज्ञानी ! तुम सिद्धो में इन पर्याय का आश्रय लगाओगे, तो संसारी नहीं हो जायेंगे। जो पर्याय आपने प्रगट की है, जो पर्याय आपकी थी वे परमाणु थे कर्म के । वे झर गये, वे दूसरे के उपयोग में आ गये, आप तो स्वतन्त्र हो गये। __ असमानजाति पर्यायों की बात कर रहे हैं। अब गुणपर्यायों में आ जाओ, व्यञ्जन पर्याय को छोड़ दो। जो हमारी विभाव-गुण-व्यञ्जन पर्यायें थी, वे ही स्वभावरूप परिणत हो गई, जो आम कच्चा था, वह ही पका है। द्रव्य, गुण, पर्यायें जो अशुद्ध थी, वे ही शुद्ध हुई हैं । मति-श्रुत ज्ञान ये पर्याय थी, पर ज्ञान धौव्य था, एकसमान था। || भगवान् महावीर स्वामी की जय ॥ qaa आचार्य भगवान् कुन्दकुन्द स्वामी समयसार जी ग्रन्थ में भूतार्थदृष्टि, अभूतार्थदृष्टि, भेददृष्टि, अभेददृष्टि, सत्यार्थदृष्टि-असत्यार्थ दृष्टि का कथन कर रहे हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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