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________________ समय देशना - हिन्दी २२८ कह दिया, यह मुण्ड वंदना है और आकर जो पूरी भावना से कायोत्सर्ग करता है, तीन आवर्त करता है शिरोनति करता है 'थोस्सामी ......... बोलता है । यह कृतिकर्मपूर्वक वंदना है । इस वंदना करने से असंख्यात गुणश्रेणी कर्म की निर्जरा होती है। नरक का नारकी कैसे वंदना करता है ? तिर्यञ्चगति में चलें, तो भगवान् पार्श्वनाथ स्वामी के जीव से पूछो, वह किस प्रकार से बारहव्रतों का पालन करते हैं। ये अवश्य है, कि संख्या न्यून हो सकती है, पर सत्ता का अभाव नहीं है। सम्मूर्च्छन, तिर्यञ्च भी सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकते हैं। सम्मूर्च्छन तिर्यश्च भी देशव्रत को धारण कर सकते है। जो त्रिर्यञ्च जितने कम समय तक गर्भ में रहता है वह तिर्यञ्च उतनी जल्दी सम्यग्दर्शन को प्राप्त कर सकता है। और जो जीव जितने अधिक समय तक गर्भ में निवास करता है, उतनी ही देर में वह सम्यग्दर्शन प्राप्त कर पाते हैं। यही कारण है, कि स्वर्ग के देव अन्तर्मुहुर्त में सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लेते हैं, क्यों? क्योंकि वह गर्भ में वास नहीं करते हैं। एक ढोल की पोल से गिरता है, दूसरा उपपाद शय्या से उठता है । नरक का नारकी ढोल की पोल से गिरता है, स्वर्ग का देव उपपाद शय्या से उठता है। अहो! डन पर्यायों को नहीं देखो उस समय की क्षणवर्ती पर्याय को देखो। परिणामों की उस क्षणवर्ती पर्याय को देखो। जिस समय आप पड़गाहन कर रहे थे। बहुत दिन से विचार चल रहा था, कि कोई योगीश्वर हमें प्राप्त हो जायें, उत्तम पात्र मिल जायें। अचानक प्रथम दिन ही आपके सामने मुनि महाराज खड़े हो गये। सत्य बताना, आहार देते समय की बात तो भूल जाओ, जिस क्षण आपके सामने खड़े हो गये थे, उस क्षण की अनुभूति को भूल जाओ, तत्क्षण की पर्याय का व्याख्यान करो। इसमें चतुर्थ/पंचम काल को हटा दो। तत्क्षण की पर्याय को निहारिये । सिद्धांत कहेगा कि यही तो रासायनिक क्रिया है। तू भिन्न द्रव्य था, वह भिन्न द्रव्य था। श्रद्धा की दृष्टि से तूने पड़गाहन किया, एक तपस्वी को देखकर मन में जो गदगद भाव हुआ है, यही परिणामों की परिणति का संक्रमण हुआ है। इधर परिणामों की परिणति का संक्रमण हुआ, उधर कर्मों का संकमण हो गया और इधर अपकर्षण भी हो गया, उत्कर्षण भी हो गया। कितने सारे काम चल रहे हैं। कल मिलाकर प्रत्येक कार्य के समय, जाग्रत होकर वेदन करके काम करें, तो अनुभूति शुभ मिलती है। आप क्रियाएँ तो कर रहे हैं परन्तु वेदन करके नहीं कर रहे, इसलिए आनंद नहीं आता। जैसे- आप यहाँ विराजे हो, आप चिन्तन करो, कि मैं 'समयसार' की वाचना में उपस्थित हूँ, देखो मेरी इस समय परिणति कैसी चल रही है? इस क्षण में घर में होता तो कैसे विकारी भाव होते। अहो ! इस क्षण को मैं दस वर्ष बाद सोचूँगा, तो मुझे सपने-सा लगेगा। लेकिन दस वर्ष के बाद भी इस क्षण का चिंतन तेरी कर्मनिर्जरा का कारण बनेगा । कैसे? अभी कुछ दिन पहले आप चौथी गाथा पढ़ चुके हैं। दृष्टश्रुत, अनुभूत । जब हम विषयसुख को भूत के बारे में अनुभूत करते हैं, तो अशुभ आस्रव होता है, कि नहीं? भूत के अशुभ विकारी भावों का चिंतन करोगे? तो अशुभ का आस्रव होगा, कि नहीं? हे ज्ञानी ! बंध होगा, कि नहीं। और ज्यादा गहरे में चले गये, तो संयम छूटेगा कि नहीं? बस, इसी प्रकार से भूत के तत्त्व ज्ञान का चिन्तन करके हम भगवान् बन जाते हैं। ध्यान दो, तत्त्वचिंतन मात्र से भगवान् बनता है। संयम पालन का समय तो छठवें गुणस्थान तक है, सराग क्रिया रूप, लेकिन आनंद निर्विकल्प अवाच्यभूत है । अप्रमत्तदशा स्वात्मलीनता होती है । वहाँ पालन के भाव का भी अभाव है। आपसे पूछने की आवश्यकता तो नही हैं, यह तो आपको ज्ञात है । ग्रास को उठाना, ग्रास को तोड़ना, ग्रास को मुख में रखना, दाँतों से चर्वण करना, यहाँ तक ही है, इसके बाद कुछ करना नहीं पड़ता, मात्र स्वाद लेना पड़ता है। इतना तो आपने किया, लेकिन स्वाद लेने का समय आता है, तो अनुभूति का For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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