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________________ समय देशना - हिन्दी २२७ जिनाभिषेक मत छोड़ देना, सत्यार्थ मार्ग से च्युत नहीं हो जाना । श्रावक के लिए उक्त कार्य अनिवार्य है बिना आकांक्षा के करना और वीतरागी श्रमण दशा की प्राप्ति का लक्ष्य रखना। पर-भावों से निज-भाव को भिन्न स्वीकारते हुए, निजभाव में लीन होने के लिए। ॥ भगवान महावीर स्वामी की जय ॥ aag आचार्य-भगवान् कुन्दकुन्द स्वामी का 'समयसार' अपने आप में विराट है। विश्व में जितने तत्व हैं, वह इसी प्ररूपणा में हैं । चाहे आप व्यवहार की बात करे या, निश्चय की बात करें, चाहे लौकिक तत्व का व्याख्यान करें, चाहे अलौकिक तत्व का व्याख्यान करें, तत्व दो रूप में चलता है, निश्चय व्यवहार ये भाषा का भेद वस्तु का भेद है नहीं है। आटे में कोई पराठा देखता है, तो कोई पूड़ी देखता है तो कोई रोटी देखता है, पर्यायजन्य भेद है, स्वाद में भी भेद है, लेकिन आटेपन के स्वभाव में भेद नहीं है। यदि हम स्वाद में भेद नहीं मानेंगे तो पर्याय की प्रत्याशक्ति का विनाश हो जायेगा । जीवद्रव्य है, नरक, तिर्यञ्च, मनुष्य आदि ये इसकी पर्याय भेद है और पर्यायभेद है तो "विपाकोऽनुभवा" उसके विपाक भी भिन्न-भिन्न हैं, वेदन भी भिन्न-भिन्न हैं। फिर भी जीवत्वपने में भिनत्वपना नहीं है। इसी प्रकार से एक जीव बाँस के माध्यम से बाँसुरी रहा है, एक लाठी बना रहा है। दोनों की क्रियाओं में भेद है, दोनों की परिणति में भेद है, दोनों के कार्य में भेद है। एक घातक है, दूसरा वशीकरण करनेवाली बाँसुरी है, लेकिन बाँसपने में भेद नहीं है। यह मैं क्यों कह रहा हूँ जो तत्त्व शुद्धत्व का कथन करने वाला है, सिद्ध भगवन्त की बात कह रहा है जिस विद्या से हम सिद्धों का ज्ञान करते है, उसी विद्या से संसारियों का ज्ञान होता है। जो ज्ञान की धारा अशरीरी बनने में जाती है, वही ज्ञान की धारा नाना शरीरों की प्राप्ति में जाती है। जो ज्ञान की धारा नाना शरीरों की प्राप्ति में जाती है, वही ज्ञान की धारा अशरीरी भगवान बनने के लिए है। सिद्धत्व का उदाहरण तीन गतियों में नहीं हो सकता, पर सिद्धत्व का श्रद्धान चारों गतियों में हो सकता है। अब यूँ कहना चाहिए चारो गतियों का जीव मोक्षमार्गी होता है, पर मोक्ष जाने के लिए मात्र मनुष्यगति होती है। "सम्यकदर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः ॥" ||१/१ त.सू. ॥ यह सूत्र है। इस सूत्र में जो दो ऊपर है, उनका कारण सम्यक्त्व है, उनका कार्य ज्ञान और चारित्र है। जब कारण मुख्य है, और कारण जो है । सम्यक्त्व जहाँ है, वहाँ ज्ञान भी सम्यक्त्व है, नरक में विराजा नारकी, कुटता-पिटता हुआ भी मोक्षमार्गपने को नहीं छोड़ता, नरक में पड़े सम्यक्दृष्टि नारकी को कितना कष्ट सहन करना पड़ता है, अस्त्र-शस्त्र से घात भी हो जाता है, फिर भी सोचता है कि यह तन का घात है, यह कर्म का विपाक है। लेकिन श्रद्धा में किंचित भी संशयपना नहीं है। सर्वज्ञ ने जो कहा वह सत्यार्थ है, पर हमने नहीं स्वीकारा, इसलिए नरक है। सर्वज्ञ के उपदेशों में नरक नहीं है। ऐसे नरक का नारकी भी - वरं नर्क वासोऽपि सम्यक्त्वेन समायुता। न तू सम्यक्त्व हीनेन दिव राजते ||सार समुच्चय।। सम्यक्त्व के साथ नरक में निवास करना श्रेष्ठ है,सम्यक्त्व रहित होकर स्वर्ग में निवास करना श्रेष्ठ नहीं है । नरक का नारकी यदि सम्यग्दृष्टि है तो मोक्षमार्गी, स्वर्ग का देव यदि मिथ्यादृष्टि है तो संसारमार्गी । 'धवला' जी की नौवीं पुस्तक में नरक के नारकियों को भी कृतिकर्म लिखा । वह नारकी भी कृतिकर्म करके वंदना करता है, तो वह असंख्यात-गुण-श्रेणी कर्म निर्जरा करता है। आकर के सीधे 'नमोस्तु स्वामिन्' Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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