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________________ समय देशना - हिन्दी २२४ स्थावर हिंसा का त्याग नहीं है, वहा असंयम भाव है। तो क्या संयमभाव से संयमभावजन्य निर्जरा होगी, कि तू जो असंयम भी कर रहा है उससे निर्जरा होगी? तत्त्व दृष्टि से सुनो, नीर-क्षीर भिन्न करो आप ।संयम, संयम हैं, असंयम, असंयम है। माना कि आपने रात्रिभोजन का त्याग नहीं किया, और दूसरे भैया ने कर दिया। और दोनों से भोजन करने के लिए बोल रहे हैं। उनमें से जिसने रात्रिभोजन का त्याग किया था, वह कहता है कि मैं तो नहीं खाऊँगा। पर दूसरा कहता है कि जिनका त्याग है वे न खायें, उन्हें खाने से पाप पड़ेगा, पर मेरा त्याग नहीं है, मैं तो खा सकता हूँ। लेकिन, हे ज्ञानी ! तूने त्याग नहीं किया था, इसलिए तू खाने बैठ गया, पर यह बताओ कि त्याग नहीं किया था तो क्यों? पाप के बंध ने भी तेरे लिए त्याग कर दिया था क्या ? ध्यान दो, तूने त्याग नहीं किया, तो क्या रात्रि में भोजन करने से पाप का बंध नहीं हो रहा था ? जिसने त्याग किया, वह खाता तो उसे पाप का बन्ध होता, और तूने त्याग नहीं किया, क्या तेरे लिए पाप के बन्ध का अभाव हो गया? इस भ्रम को निकालो, कि हम तो अव्रती हैं, सो चलता है, हमारा कौन व्रत है। इतना ध्यान रखना कि व्रत नहीं है, सो तुम खा रहे हो, इसका मतलब यह मत समझ लेना, कि पाप का बंध नहीं होता। तुझे दोगुना पाप का बंध हो रहा है। एक त्याग नहीं है, सो कषाय बैठी है। क्यों नहीं त्यागा? उसके प्रति राग है। खा क्यों रहा है? तीव्र राग। दोगुना पाप का बन्ध हो रहा है। इसलिए देशसंयमी, पंचम गुणस्थानवर्ती संयमासंयमी जीव न सोच ले, कि मेरी तो निर्जरा ही हो रही है। जितने अंश में तुम संयम का पालन कर रहे हो, उतनी ही निर्जरा है। जितने अंश में असंयम का सेवन करो, उसमें निर्जरा नहीं है, वह तो बंध ही है। ऐसे ही यूँ कहता है कि सम्यक्दृष्टि को भोग भोगते कर्मों की निर्जरा होती है। अरे ! सम्यग्दृष्टि को भोग भोगने से निर्जरा नहीं होती है, सम्यक्दृष्टि को भोगों की सत्ता में जो सम्यक्त्व बैठा है, उससे निर्जरा हो रही है, भोगों से नहीं। यदि भोग निर्जरा के साधन बन जायेंगे, तो योग की चर्चा क्यों ? चतुर्थ गुणस्थान में भी सम्यग्दृष्टि जीव यदि क्षायिक सम्यक्त्व में बैठा तो, तीन में से कोई भी सम्यक्त्व है तो सम्यक्त्व सम्बन्धी निर्जरा का अभाव नहीं होगा। संयम का पालन तो कर ही नहीं रहा वह, असंयम का सेवन कर रहा है परिपूर्ण रूप से, लेकिन अन्दर में जो श्रद्धा बैठी हुई है वीतरागता के प्रति, उतनी निर्जरा हो रही है। आंशिक तद्जन्य समझना। पर वह निर्जरा मोक्ष का साक्षात् कारण नहीं है, क्योंकि अपना दर्शन सत्य कहनेवाला है, हम उसके प्रति यह भी नहीं कह सकते कि हो नहीं रही है। हो रही है। कौन-सी? सविपाका ये वचन विशुद्ध सागर के मत समझना, आचार्य कुन्द-कुन्द के वचन हैं। सा पुण दुविहाणेया, सकाल पक्का तवेण कयमाणा। चदुगदियाणं पढ़मा, वयजुत्ताणं हवे विदिया ॥६७।। वारसाणुपेक्खा ॥ दूसरी निर्जरा तो व्रतियों की होती है, प्रथम निर्जरा तो जगत के प्रत्येक प्राणी की होती है। कर्म फल देकर निर्जीर्ण हो गये। वह तो सबके हो रहे हैं । फल देकर ही फूल झरता है। नहीं मानो तो केले के बगीचे में चले जाओ। केले का बड़ा फूल होता है। जैसे-जैसे पीछे फल आते जाते हैं, वैसे-वैसे फूल मुरझा जाता है, और जैसे-ही फल बड़े हुए, वैसे ही फूल नीचे गिर जाता है। जैसे-ही फल मिला, फूल गिरा। कर्म का फल मिला, कि कर्म का फूल गिरा । वह निर्जरा तो सबको चल रही है। जितने विशाल पुष्प देखना हो, तो कर्नाटक, महाराष्ट्र जाओ। कितना सुंदर सिद्धांत जैनदर्शन का है । फल देकर खिर जाना, ये सविपाक निर्जरा है। तो फल देकर ही तो खिरता है फूल। यानी हमारा दर्शन/सिद्धांत पूरी प्रकृति को लेकर चलता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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