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________________ समय देशना - हिन्दी २२३ आचार्य श्री कुन्दकुन्द देव सात तत्त्वों की विशद प्ररुर्पणा करते हुए, यहाँ कथन करने जा रहे हैं। वही द्रव्य भूतार्थ है, वही अभूतार्थ भी है और युगपत् व्यवहारदृष्टि से भी लौकिक कार्यों में भी एक ही द्रव्य भूतार्थ होता है, अभूतार्थ भी होता है। एक क्षण को हम लौकिक व्यवस्था देखें, फिर आगे चले, भूख लगी है, तो भोजन भूतार्थ है। उपवास है आपका, तो वही भोजन आपके लिए अभूतार्थ है । गर्मी चढ़ गई तो कालीमिर्च भूतार्थ हैं। उसी कालीमिर्च को घी-शक्कर के साथ खाओगे तो भूतार्थ है, और उसी कालीमिर्च की उकाली गर्मी के दिनों में अभूतार्थ है। कालीमिर्च वही है। वही कालीमिर्ची गर्मी में भूतार्थ भी है, अभूतार्थ भी है। ऐसे ही हमारी आत्मा जब अशुभ भाव में परिणमन करे, तो वही आत्मा अभूतार्थ है । वही आत्मा शुभभाव में परिणमन करे तो भूतार्थ है। जब आत्मा की परिणति स्वभाव-अभिमुख हो जाये, तो भूतार्थ है और स्वभाव से विमुख हो जाये अभूतार्थ है। ध्रुव आत्मा एक है। अब आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी से पृच्छना करें प्रवचनसार' में काि कार्तिकेय स्वामी से पृच्छना करें 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' में, योगीन्द्रदेव स्वामी से पृच्छना करे ‘परमात्म प्रकाश में। यह तीनों आचार्य जीव को पुण्यजीव और पापजीव कहते हैं। कोई पुण्य या पाप किसी जीव के बाहर से नहीं आता। एक क्षण में पुण्य-पाप जीव होता है। जब ये परिणाम विषयकषाय में लिप्त होते हैं, तब कहना अपने आप से हे ! पापी जीव ! क्या कर रहा है ? उस समय तेरी आत्मा पापजीव है। सहज परिणमन होता है । क्यों ? अशुभभाव/विकारीभाव मन में सताते हैं । सत्य बताना क्रिया भले उस रूप करने लग जाओ, मन उसे शुभ नहीं कहता । गुणस्थान परिवर्तन हो सकता है, परन्तु भेष वही रह सकता है । अब ध्यान दो, आगम में अंत-अंत तक गुणस्थानों का वर्णन किया है । कषाय ही पाप है, दसवें गुणस्थान तक चल रही है, कषायभाव को पाप कहेंगे, तो दसवें गुणस्थान तक पापजीव है । तब ग्यारहवें गुणस्थान से पुण्यजीव चलेगा । सूक्ष्म कषाय। । जब हम इतना ।। सक्ष्म कषाय। जब हम इतना गहरा कथन नहीं करेंगे. सामान्य कथन करेंगे, तो अनंतानुबंधी कषाय के साथ पापजीव है और शेष कषाय की सत्ता में पुण्यजीव है। अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान कषाय की रक्षा हो रही है। इनकी रक्षा होते हुए भी यदि आर्त्त-रौद्र ध्यान कर रहे हैं, वह जीव जो चौथे या पाँचवें गुणस्थान में विराजते हैं, तब भी अशुभ ध्यान की अपेक्षा से वे पापजीव ही हैं, क्योंकि सम्यक्त्व और एकदेश चारित्र पूज्य हैं, न कि आर्त्तरौद्र ध्यान की परिणति पूज्य है। जो निर्जरा हो रही है, वह सम्यक्त्व और एकदेश चारित्र से हो रही है, न कि उनकी अशुभ क्रिया से हो रही है। भोग भोगते सम्यग्दृष्टि को कर्मों की निर्जरा हो रही है, यह एकान्तिक कथन नहीं है, इसे एकान्तिक कह कर तू कहाँ जा रहा है? भोगों से समाधि की ओर? भोगों से सल्लेखना होती हो, भोगों से ध्यान लगता हो, भोगों से सिद्धि होती, तो चतुर्थ गुणस्थान में बैठकर भोगों का पोषण मत करना । सम्यक्त्व की पुष्टि के राग में, ध्यान दो, सम्यक्त्व का राग भी राग ही है। चारित्र का राग यथाख्यात में प्रवेश नहीं करने देता। राग सम्यक्त्व नहीं है. सात तत्त्वों पर श्रद्धान सम्यक्त्व है। राग और श्रद्धान में बहत अन्तर है। श्रद्धान एक तत्वरुचि है, राग एक कषाय-परिणति है। भोग भोगते हुए भी कर्मों की निर्जरा होती है। पहले तो ध्यान दो, ये सम्यक्दर्शन का राग भोगों की पुष्टि में ले जा रहा है तुम्हें, जबकि आगम का यह वचन नहीं है। आगम यह कह रहा है, कि सम्यक्त्व की महिमा ऐसी है कि सम्यक्त्व के सद्भाव में सम्यक्त्व जन्य निर्जरा है, न कि भोगों की सत्ता में भोगों द्वारा कर्म की निर्जरा है। उस देशसंयमी से कह देना कि तेरा नाम संयमासंयम हैं, तो जितने अंश में तू सम्यक्त्व का पालन कर रहा है उतने अंश में ही संयम है। असंयमभाव संयम नहीं है। सयमासयम-भाव-पचम-गुणस्थान में, जो त्रसहिंसा का त्याग है, वह तद्अनुकूल संयमभाव है और जहाँ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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