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समय देशना - हिन्दी
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अब बताओ ये विकार पर्याय का था, कि परिणामों का था ? विकार पर्याय का नहीं था, पर्यायी का था । पर्यायी विकारों को शांत कर ले, तो पर्याय अभी बदलती है। यह असामान्यजाति पर्याय नष्ट होती है। सुनने में जितनी ताकत लगा रहे हैं आप, उतनी ध्यान में लगाने लग जाओ, तो मोह आपका विगलित होना प्रारंभ हो जायेगा। क्योंकि सुनने का मस्तिष्क भिन्न रहता है, सुनाने का मस्तिष्क भिन्न होता है, और ध्यान का मस्तिष्क भिन्न होता है, तथा श्रद्धा का मस्तिष्क भिन्न होता है। ज्ञान से मिलान करो। लोग कहते हैं कि जगत में सुख है, उससे थोड़ा और ऊपर ले जाओ। ज्ञान में पहले सुख मिलता, कि श्रद्धा में सुख मिलता ? ज्ञान बहुत कठिन विषय है। जो श्रद्धा में सुख है, वह कहीं नहीं है। आप टीचर हो, किसी के चेहरे पर बहती नाक को देखकर तुम
कोड़ लेते हो। पढ़े-लिखे हो, मल में कोई सुख होता है क्या? पर धन्य हो श्रद्धा के सुख को । स्वयं के सुत की नाक से अमृत नहीं झरता, वहाँ भी मल ही होता है, वह मल भी विसर्जित करता है, लेकिन अपने निज
के मल को साडी से पोछ लेती है, आप अपने रूमाल से पोछ कर जेब में रख लेते हो, जैसे अमत रख लिया हो। ये क्या था? बेटा भाव का राग । वह मोह न हो, तो कोई भी संतान का पालन नहीं करेगा। तो जैसे बेटे के राग ने मल पर वैराग्य उत्पन्न नहीं होने दिया, ऐसे ही श्रद्धा का राग मिथ्यात्व में राग नहीं होने देता। ये श्रद्धा का सुख है। बेटे का मल उठाने में तुझे आनन्द होता है, यह मोह का आनन्द है । अब सम्यक्त्व के आनन्द की बात करो। निर्विचिकित्सा अंग कहता है, कि आप अपने सधर्मी के मल को उठाने में द्वेष नहीं करते हो, यह है श्रद्धा । श्रद्धा मल में भी ग्लानि नहीं होने देती और अश्रद्धा भगवान् में भी ग्लानि कराती है ध्यान तो दो -
"मुनितन मलिन न देख घिनावें, तत्व कुतत्व पिछाने।" यह कौन करेगा? जिसका सम्यक्त्व दृढ़ होगा। यानी मल उठाना धर्म है। आपने एक व्रती की सेवा की । आचार्य महावीरकीर्ति महाराज आचार्य वीरसागर की वैयावृत्ति करने पहुँचे जयपुर। अपने हाथ से उनके मल को निकाला । जब कफ निकाला तो अंजलि आगे कर दी कि इसमें कर लो। वीर सागर जी ने कहा- नहीं, तुम मेहमान हो । तब महावीर कीर्ति ने उत्तर दिया-नहीं जो -
"निशदिन वृत्यावृत्य करैया, सो निश्चय भव नीर तिरैया ॥"
जब विपर्यास में इतनी श्रद्धा की, तो संसार है और समीचीन की श्रद्धा मोक्षमार्ग है। आनंद कहाँ है? श्रद्धा में । श्रद्धा नहीं है, तो ज्ञान भी आनंद नहीं देता, चारित्र भी आनंद नहीं देता। यदि श्रद्धा है, तो आनंदही-आनंद है। श्रद्धा है, इसलिए आप यहाँ सुन रहे हो, अच्छा लग रहा है आपको । प्राप्ति की आकांक्षा ही सुख है संसार में। पर की बहिन को पत्नी क्यों बनाया तुमने? प्राप्ति की आकांक्षा ने तुम्हें पराधीन कर दिया, तूने सुख मान लिया । एक असामान्य जाति के राग का फल है।
तो क्या चर्चा चल रही थी? आम का फल पहले पीला नहीं था हरा था। पीला हुआ, तो सहभाव था, कि नहीं? सहभाव में परिवर्तन हुए बिना आम पकता नहीं है। रस का रसत्व भाव ज्यों-का-त्यों है। परन्तु रस में परिणमन हुए बिना खट्टा आम मीठा हो नहीं सकता। खट्टेपन में मीठापन नहीं आया, रस गुण में परिणमन हुआ है। ज्ञानगुण की त्रैकालिक पर्याय ज्ञान मात्र ही ग्रहण करना । सहभाव यानी जिसका न हो कभी अभाव । मैं तिर्यञ्च योनि में जाऊँ, नरक में जाऊँ, देव बनूँ, सिद्ध बनूँ लेकिन मेरे ज्ञान का कभी अभाव नहीं होगा, ज्ञान गुण में परिणमन होगा, उसको नाना रूप नाम दे दिये जायेंगे, मति, श्रुत, अवधि आदि । आत्मा का सहभाव गुण क्या है, ज्ञान । यदि हम सहभाव में परिणमन नहीं मानेंगे, तो ज्ञान में परिणमन नहीं होगा, तो अशुद्ध ज्ञान
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