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________________ समय देशना - हिन्दी २१७ से अत्यन्त भिन्न जो स्वरूप है, वही आत्मा है । द्रव्यार्थिकनय से क्या लेना ? राग, द्वेष, मोह आदि भाव भी कर्माश्रित होने के कारण मेरे निज स्वभाव नहीं हैं, इसलिए ये मेरे से भिन्न हैं । एकमात्र शुद्ध सम्यक्त्व ही मेरी आत्मा का धर्म है। रागद्वेष भी परद्रव्य है। यह पुद्गल की पर्याय है, शुद्ध निश्चयनय से कर्म के आश्रय से हो रही है । इसलिए, जो हट जाये, मिट जाये मेरे से, वह मेरा कैसा है ? वह तो पर ही है। जो पर है, वह परद्रव्य ही है । मेरा सम्यक्त्व गुण मेरे से कभी हटेगा नहीं, मिटेगा नहीं। मैं सिद्ध बनूँगा तो सम्यक्त्व गुण होगा, लेकिन रागद्वेष नहीं होगा । इसलिए रागद्वेष तो पुद्गल आश्रित भाव था, इसलिए वह भले ही जीव को था, पर पुद्गल आश्रित होने के कारण उसे पुद्गल कहा। जो रागद्वेष विहीन आत्मा के परिणाम हैं, वही सामायिक है, वही सामायिकचारित्र है । सम्यक्दर्शन ही नियम से आत्मा है। गुण-गुणी अभेद कथन है। उससे अन्य गुणों को छोड़कर, जो नौ पदार्थों की परम्परा है, संतति है, उन नौ तत्त्वों से आत्मा को भिन्न करके आत्मा को जानो, और नौ तत्त्वों से भी भिन्न निज शुद्धात्मा मानो । अब नौ तत्त्वों से आत्मा को भिन्न कैसे करें, उसमें तो आत्मा भी है ? आत्म तत्त्व, जीवतत्त्व में अनंत जीव हैं। उन अनंत जीवतत्त्व में से अपने को भिन्न कर देखो। जो नाना जीवतत्त्व हैं, उनसे अपने को भिन्न करके देखो। क्योंकि पर जीवतत्त्व से भी तेरा कल्याण नहीं है। यहाँ भगवान, माता-पिता, गुरु सभी आ गये । इन सब के मध्य में इन सबको जानो, पहचानो, इन सबका श्रद्धान करो, लेकिन इन सब से भिन्न निज आत्मतत्त्व को स्वीकारो । गृहस्थ है, घर में तो रहना ही है। घर में रहते हुए घर को अपना मत मानो । अपना कहते हुए भी, उसका रक्षण करते हुए भी, उसकी रक्षा में अपनी रक्षा मत खो देना । ज्ञेय है, हेय है, उपादेय तो है एक निज शुद्धात्मा । निज अशुद्धात्मा भी उपादेय नहीं है। वह भी परभाव है । क्यों ? निज अशुद्धात्मा परभाव का आलम्बन लिये है, इस अपेक्षा से परभाव है। जो परभाव से शून्य शुद्ध आत्मद्रव्य है, वही मेरा निजभाव है। शुद्ध नय के विषय को ही निज का ज्ञेय बनाइये, ध्येय बनाइये | और शुद्ध निज तत्त्व का ही ध्यान कीजिए। जैसे - वस्त्र तेरा है, फिर भी तू वस्त्र नहीं है । तन तेरा है, फिर भी तन तेरा नहीं | तू चैतन्य है । तो जैसे एक क्षेत्रावगाह सम्बन्ध नहीं है, वैसे चेतन में शरीर है। जैसे चेतन में शरीर है, वैसे चेतन में रागादिक भाव है। जैसे एक उतारो अर्थात् वस्त्र उतारो। एक उतारो, अर्थात् चारित्र निज में उतारो। वैसे ही वे भी अर्थात् कषाय भाव उतारो, तब मिलेगा शुद्धतत्त्व । घी बन गया है । जब दही था तो कह रहा था, कि मथो / विलोओ । लोनी बन गई, तो मरी हटाओ । अब कुछ नहीं हटाओ, चखो-खो । जब चख लिखा, तो अब लखो-लखो, लखो - लखो बन्द कर दिया, तो अब ब्रह्मानंद स्वरूपोहम्, परमानंद स्वरूपोहम् । जिसने द्रव्य को पा लिया, वह पर्याय के विकल्प में नहीं पड़ता है । ध्रुव सत्य यह है | जब मैं जानूँगा, तब नहीं कहूँगा । अतीन्द्रिय है, कि इन्द्रिय है, मैं इन विकल्पों से भी शून्य हूँ । इसलिए ध्रुव सत्य यह है, कि जब-तक पाया नहीं, तब-तक व्याख्यान करना कि ज्ञेय भी शुद्ध हो, ज्ञाता भी शुद्ध हो, और हेतु भी शुद्ध हो, और जब पा लिया है, तो शुद्ध शब्द को भी छोड़ दो। “जो सो दू सो चेव', जो है सो है । ॥ भग्वान महावीर स्वामी की जय ॥ aaa 'समयसार' जी ग्रन्थ में तत्त्व-प्ररूपणा करते हुए समझा रहे हैं। जीवादि तत्त्व परमार्थ-भूत हैं इसलिए भूतार्थ हैं। स्वभावभूत नहीं हैं, इसलिए अभूतार्थ हैं। छः द्रव्य, सात तत्त्व में जीवतत्त्व को छोड़कर शेष सभी पदार्थ भूतार्थ नहीं हैं । भूतार्थ होने पर भी अभूतार्थ हैं और अभूतार्थ होने पर भी व्यवहार से भूतार्थ हैं । जैसे कि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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