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समय देशना - हिन्दी
१८८ ज्ञायक को न प्राप्त होते हुए भी जो वर्ण स्थानीय, नाना प्रकार व्यवहार है । वही प्रयोजनवान है। किसके लिए? जो व्यवहार में स्थित है। क्योंकि यदि उसका अभाव कर दोगे तीर्थ, तीर्थ फल, ये व्यवहारनय में व्यवस्थित हैं। जो व्यवहार को छोड़ देगा, वह तीर्थ और तीर्थ के फल को प्राप्त नहीं होगा। क्या करना, क्यों मंदिर जाना, क्यों नये मंदिर बनाना, जब व्यवहार कुछ करता ही नहीं है ? वह तो निश्चय ही है। फिर मठ आदि क्यों ? यह तत्त्व की पहचान नहीं है, यह पुद्गल की पहचान है, जो अलग से बैठ रहे हो । तत्त्व की पहचान में तो एक में अनेक विराजते हैं । तत्त्वज्ञान बाद में कर लेना, पहले समाज में वात्सल्य भाव को मत खोवो। इन ईंट चूनें के दीवारों के पीछे परभावों में दीवार खड़ी मत करो। आपको मुख्य गाथायें सुनाई जाती है। पूरा समयसार सुनाया ही नहीं जाता। इस प्रकार से तीर्थ-तीर्थंकर फल तभी होगा, जब व्यवहार होगा। || भगवान् महावीर स्वामी की जय ।।
qaa भूयत्थेणाभिगदा जीवाजीवा या पुण्णपावं च ।
आसवसंवरणिज्जरबंधो मोक्खो य सम्मत्तं ॥ १३ स.सा. ॥ जो छः द्रव्यों से भिन्न कथन करता हो, सात तत्त्व, नौ पदार्थ, पंचास्तिकाय यदि इनको छोड़ कर कथन करता है, उसका नाम नय ही नहीं है। जो भी कथन होगा, इनके ऊपर ही होगा, अब वे चाहे अभेद रूप कथन करें, चाहे भेद रूप कथन करें, चाहे एक क्षण की पर्याय को लेकर कथन करें, चाहे सादि नित्य पर्याय को लेकर कहें, चाहे सादि अनित्य पर्याय को लेकर कहें, चाहे अनादि अनित्य पर्याय को लेकर कहें। कथन किसका होगा? द्रव्य का । और चाहे वे नय प्रमाण की प्रधानता से बोलें, चाहे नय-नय की प्रधानता से बोलें, नय कह वही पायेंगे, जो पदार्थ है, जो सत् है । नय सत् का ही कथन करते हैं, कि असत् का भी कथन करते है ? ध्यान दो, कथन जो है वह सत् के होने पर ही होता है। असत् की सिद्धि तभी होती है, जब सत् होता है। असत् जो है, वह अभावरूप नहीं है। असत् जो है, वह परभाव का अभावरूप है। परभाव का अभाव निजभाव में होना असत् है । असत् नाम का कौन-सा द्रव्य है, यह पकड़ने में आ जाये, तो कितना सारा विकल्प समाप्त हो जाये। छः द्रव्यों का ही कथन है आगम में। वह छः द्रव्य सद्रूप हैं कि असद्रूप हैं? । असद् नाम का द्रव्य कौन-सा है - आचार्य उमास्वामी से पूछ लीजिए- प्रभु ! आपसे लेकर कुन्दकुन्द ही नहीं, वर्द्धमान तीर्थंकर नहीं, आदिनाथ नहीं, अनादि से द्रव्य का लक्षण क्या है? सद्रव्य लक्षणम् ।
दव्वं सल्लक्खणियं उप्पादव्वयधुवत्त संजुत्तं ।
गुणपज्जयासयं वा जं तं भण्णंति सव्वण्हू ॥१०॥पंचास्तिकाया| द्रव्य का लक्षण सत् है, असत् नहीं है । फिर स्याद्अस्ति, स्याद्नास्ति भंग कैसे बनेगा ? अस्ति सत्, नास्ति सत्, आप कह रहे हैं । द्रव्य का लक्षण सत् ही है। ध्रुव सत्य है, कि द्रव्य का लक्षण सत् ही है, असत् नाम का कोई द्रव्य नहीं है। फिर ये भंग कैसे बनेंगे ? परचतुष्टय की अपेक्षा से असत्पना ग्रहण करना, भावरूप से किसी द्रव्य मेंअसत्पना ग्रहण नहीं करना । यह लेखनी है, यह वस्त्र धोने वाली मुगरिया नहीं है। स्याद अस्ति सत् है कि नहीं? क्यों सत् है? लेखनी सत् है, पर मुंगरिया असत् है। पर-चतुष्टय का स्वचतुष्टय में अभाव इसका नाम सत् ग्रहण करना है । असत् का अर्थ द्रव्य का विनाश नहीं है आपमें असत्पना है कि नहीं? स्वभाव की अपेक्षा से असत्पना है कि नहीं? क्योंकि आपमें स्वभाव की अपेक्षा से आपमें ही आपका अभाव है। हे ज्ञानी ! शुभ, अशुभ, शुद्ध तीन के उपयोग से तीन भेद जो अशुद्ध अवस्था
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