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________________ समय देशना - हिन्दी गा, आप किसी पुर में राज्य नहीं कर पाओगे, तब भी आपको पुर का राग रूला रहा है। जीव की धारा देखो कि एक प्रदेश का भी भोग नहीं कर पा रहा है, क्योंकि तू बाह्य भोगों का त्यागी हो चुका है, परन्तु नगर की गली का राग तुझे सता रहा है। बहुत कठिन है, आचार्य अमृतचन्द्र जैसा योगी लिखता हो, ‘पर परणति हेतुः। बिना हेतु के कार्य नहीं होता। एक-एक शब्द पकड़ना। पर में परिणति क्यों जा रही है ? ये झूठी बातें नहीं चलेगी, न कोरा अध्यात्म चलेगा। नहीं, हम तो परम विशुद्ध हैं, मेरा तो मोह चला गया है। अरे ! मोह चला गया तो घर में बैठा क्यों है? घर में भी बैठा रहता, मानता हूँ, लेकिन घरवालों के प्रति रागभाव क्यों? घरवालों में रागभाव है, मैं भी मानता हूँ, पर घर के बाहर के लोगों में द्वेष क्यों? इसका तात्पर्य है कि अभी ध्रुव सत्यतत्त्व का भान नहीं हुआ। जहाँ-तक मैं व मेरापन झलक रहा है, तब-तक मोह की धारा चल रही है। भिन्नत्व भाव देख रहा है। रोष हो, तोष हो तो अभी शुभोपयोग भी नहीं बन रहा है। कठिन है? तो आचार्य आगे कहते हैं, दो शब्द हैं-अनुभव, अनुभाव्य ।अनुभाग यानी कर्म का विपाक, फलदान । अनुभाव्य यानि उन कर्मविपाक से तेरे रागादि परिणाम हो रहे हैं, उससे तू कलुषित हो रहा है, झुलस रहा है । हे प्रभु! हे आनंदकन्द, ज्ञानघन, चिद्रूप परमेश्वर ! तू अनुभाव, अनुभाव्य भाव में कलुषित क्यों हो रहा है ? भगवन् ! पर-परणति का हेतु मोह है। "परम विशुद्धोऽहं" मेरी तो परम विशुद्धि है । हे नाथ ! समयसार की व्याख्या में मैं अनुभव करूँ । किसका ? "मम परम विशुद्धि', जो मेरी परम विशुद्धी है, वह मेरी शुद्ध चिन्मात्र मूर्ति हो जाये और कुछ नहीं चाहिए। हे भगवन् ! जो मेरी विशुद्धि है, प्रार्थना कर रहे हैं, समयसार से कुछ मिले, तो वह शुद्ध चिन्मात्र मूर्ति हो जाये । कहाँ चेला, कहाँ चेली, कहाँ सम्बन्ध । कुछ नहीं, ऐसी भावना भा रहे हैं। मुझे कुछ प्राप्त हो तो विशुद्ध भाव हो । जो रागादि से कलुषित मेरी बुद्धि वह धुल जाये। कितनी मेहनत है, एक मलिन शरीर के चर्म को धोने का कितना पुरुषार्थ करते हैं, पर एक मलिन दृष्टि को धोने का पुरुषार्थ क्यों नहीं करते? विश्वास रखो जबलपुर की ज्ञानी आत्माओ ! जिस दिन आपकी दृष्टि धुल जायेगी, उस दिन चादर धोने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। चादर मलिन तभी तक दिखती है, जब-तक दृष्टि मलिन होती है। दृष्टि निर्मल हो जाये तो मल, मल है और चादर-चादर है। अब यहाँ पर सूत्र का अवतार होता है। अभी तक आचार्य-भगवन् अमृतचन्द्र स्वामी अपनी भावना कह रहे थे, मंगल भावना रख रहे थे। आचार्य भगवान् कुंदकुंद स्वामी मंगलाचरण कर रहे हैं - वंदित्तु सव्वसिद्धे, धुवमचलमणोवमं गई पत्ते । वोच्छामि समयपाहुडमिणमो सुयकेवली भणियं ॥१॥ स.सा.॥ सब सिद्धों की वंदना करता हूँ। कैसे हैं वे सिद्ध ? ध्रुव हैं, वे कभी वापस नहीं आयेंगे। अचल हैं, चलायमान नहीं होते। अनुपम हैं, जिनकी कोई उपमा नहीं है। ऐसी गति को जिन्होंने प्राप्त किया है। ध्यान दो, गाथा क्या कह रही है - "गइंपत्ते''। तू अनादि से सिद्ध होता, तो "गइंपत्ते" शब्द क्यों होता। इस भ्रम को निकाल देना कि मैं त्रैकालिक शुद्ध हूँ। ज्ञानी ! तू शक्ति रूप से तो है, परन्तु अभिव्यक्ति रूप से नहीं है। आचार्य कुन्दकुन्द देव कह रहे हैं, 'गइंपत्ते । प्राप्त किया है, थे नहीं। पकड़ना तत्त्व को । यदि पूर्व से ही थे, तो पुरुषार्थ किसके लिए? तत्त्व समझना । समयसार की पहली ही गाथा में पुरुषार्थ को खड़ा कर दिया है। यदि भगवान् पूर्व से सिद्ध थे, तो पुरुषार्थ किसके लिए ? फिर यदि वे सिद्ध थे, तो हम कभी सिद्ध नहीं हो पायेंगे । क्यों ? तू "सदाशिव' हो गया, क्योंकि ''जो शिव है, वे ही शिव है", बाकि नहीं होंगे। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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