________________
१५६
समय देशना - हिन्दी फूटता है। बिना अग्नि के धमाका नहीं चलता । जैसे ही ध्यान रूपी अग्नि लगाई, वैसे ही धीमे-धीमे आत्मभावना में मुनि समाता है, स्फुटित होता है। धमाके में भी प्रकाश होता है और ऊपर उठता है, ऊपर जाकर रूकता है। जैसे धमाके में फुलिंगें छूट रही हैं, वह चिंगारी बीच की ऋद्धियाँ, सिद्धियाँ है । जब प्रकाश कैवल्य का होगा, ध्वनि दिव्यध्वनि की होगी, तब कंकण घातिया, अघातिया कर्मों के फिकेंगे। ये सब चिंगारी है। कुछ है।
केवलज्ञान से चार कर्म गये हैं, चार बचे है। पाँच पाप गये हैं, पुण्य कहाँ गया है ? पाप जल्दी चले जायेंगे, पर पुण्य को जाने में देर लगती है। बात गहरी है, पचा नहीं पाओगे, पर सुन लो। मिर्च, नमकीन जल्दी छोड़ देते हो, मीठा छोड़ने में विचार करते हो। नमक जल्दी छूट जाता है। नमक भोजन में ज्यादा आ जाये तो मुँह सिकोड़ता है, पर मीठा आ जाये तो वह खाता रहता है। अशन दोनों है, वासनायें दोनों में हैं, निज आसन में दोनों रहने नहीं देंगे, । आयुकर्म ही सब से बड़ी पुण्य प्रकृति है । मनुष्य आयु, सातावेदनीय कर्म, शुभनाम, शुभ गोत्र । तीर्थंकर प्रकृति नामकर्म की सातावेदनीय ने समवसरण लगवा दिया, वीर्यान्तराय कर्म का क्षय (दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, इनका क्षय) करवा दिया। अब इन्हें भोगे बिना जायेगा कैसे ? अब आयुकर्म ज्यादा बचा है, शेष कर्म की स्थिति आयुकर्म के बराबर करना है। आयुकर्म की स्थिति कम है, शेष की स्थिति ज्यादा है, उन कर्मों को बराबर करने के लिए, साड़ी को पानी में डुबोओ और रख दो तो समय लगता है, सूखने में, और फैला दो तो शीघ्र सूख जाती है । पर धुव्र सत्य यह है, कि करने धरने के भाव भाषा में है, पर वहाँ शुद्ध ध्यान का तीसरा पाया सहज प्रगट होता है। सहज होने पर भी पुरुषार्थ आत्मा का है, सहज भी है पुरुषार्थ । क्यों ? तुम सभा में आये, बैठे हो, सहज में अच्छा लग रहा है, परिणाम अच्छे है न? हे मुमुक्षु ! ये भी पुरुषार्थ ही चल रहा है । प्रकृष्ट पुरुषार्थ है । सहज है ।
क्षा तो एक या आधे घंटे में होती है। निर्वाण अ, इ, उ, ऋ, लृ के उच्चारण मात्र समय में होता है । दीक्षा और निर्वाण के बीच का जो समय है, उसमें क्या करोगे ? विश्वास मानना, निर्वाण में समय नहीं लगता, दीक्षा में समय नहीं लगता, पर निर्वाण और दीक्षा के काल में जो बीच का समय है, उसे बहुत संभाल के रखना पड़ता है। इस बीच के काल को कैसे संभालेंगे? अब आपको प्रमाण, प्रमेय, प्रमाता में अपने को लगाकर चलाना पड़ेगा। ज्ञान के अंकुश के अभाव में वैराग्य का हाथी भाग जायेगा। इसलिए जो समान कथन कर दिया, वह सामान्य हो गया । विशेष कथन करोगे, तभी प्रज्ञा खुलती है, और तभी विश्वास जगता है, यानी भेदविज्ञान की शक्ति उद्घाटित होती है। क्योंकि जब आप गाड़ी में पैर रखते हो तो कितनी देर लगी? थोड़ी-सी । उतरने में भी थोड़ा समय लगता है, पर मार्ग में चलते समय अधिक लगता है। ये जो चलने का मार्ग है, वह संभलने का मार्ग है। जो चलते योगीश्वर मार्ग में संभल नहीं पाते, वे आत्मभावना को प्राप्त कर नहीं पाते । ये संभलने के लिए समय है। तो कैसे लगायें उपयोग को ? प्रमाण, प्रमाता, प्रमिति, ज्ञान, ज्ञाता, ज्ञप्ति । हेय, उपादेय, उपेक्षा । तीन को जान लिया होता तो तीनलोक का नाथ बन गया होता। जब भी आपके भाव पिच्छी लेने के आयें, तो तीन बातों पर ध्यान देना । उपेक्षा के अभाव में संयम किंचित भी नहीं पलता । जगत में किस-किस को देखोगे, किस-किस को सोचोगे? मैं सामायिक कब करूँगा? फिर करुणा भी अकरुणा है । जब मैं करुणा कर रहा था, तब ध्यान नहीं लग रहा था। भटकना नहीं । करुणा में संकल्प होता है, करुणा में विकल्प होता है । तड़पते देखकर मेरे नयनों में नीर होता है। पर मैं जब आत्मभावना में
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org