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________________ १५५ समय देशना - हिन्दी पागल कहकर भगा दिया जायेगा। घी में मक्खन खोज रहा है, जबकि इन सब से ऊपर की व्यवस्था हो चुकी है। मक्खन खोजना है तो प्रेम से दही में खोजो। लेकिन घृत में मक्खन की खोज, ये तो प्रज्ञा-विहीनता है । घृत का स्वाद चखिये, उसमें खोज मत कीजिए। इसमें गुणस्थान मत खोजना, इसमें मार्गणास्थान मत खोजना । वह विषय अपनी प्रज्ञा से समझो। 'गोम्मटसार' से मिलो, गुणस्थान देखना है तो । बंधस्थान देखना है तो 'महाबंध' से मिलो । लब्धिस्थान देखना है तो 'लब्धिसार' से मिलो। मग्गण-गुण-ठाणेहि य, चउदसहि हवंति तह अशुद्धणया । विण्णेया संसारी, सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया ||१३|| वृ.द्र.सं. || ये शुद्धनय की व्याख्या है, इसे ऐसे ही रहने दो। मिश्रण करोगे तो शुद्ध को कहीं नहीं पायेंगे। जो यह कहते है कि समयसार में ऐसा लिखना चाहिए ऐसा नहीं लिखना चाहिए। समयसार जैसा है उसे वैसा ही रहने दो। यदि घृत में मक्खन डाल दिया जायेगा तो मैं शुद्ध घृत को कहाँ बता पाऊँगा । इस ग्रंथ में कुछ करने की आवश्यकता नहीं है आपको। बकरी का दूध तो पचा नहीं पा रहे, क्या भैंस के दूध को पचा पाओगे? ये बकरी का दूध नहीं, भैस का भी नहीं, सिंहनी का दूध है, जो स्वर्णपात्र में ठहरता है। समयसार की व्याख्या परिणामों में परिणामी का ठहरना है। इस ग्रंथ में शुद्ध तत्त्व को निहारना। मिलावट कर दी, तो शुद्ध तत्त्व का ज्ञान नहीं हो पायेगा। तत्त्वज्ञान से विहीन निर्ग्रन्थपना भी निष्फल है। निर्ग्रन्थ मुद्रा से मोक्ष नहीं मिलता, पर निर्ग्रन्थ मुद्रा के बिना भी मोक्ष नहीं मिलता। निर्ग्रन्थ मुद्रा के साथ तत्त्वज्ञान होना आवश्यक नहीं, अनिवार्य है । आवश्यक से अनिवार्य बड़ा है। नहीं तो कहीं जाओगे तो आँखों में आँसू बहाओगे । तत्त्वज्ञान है तो श्मसानघाट पर भी मुस्कराओगे । क्यों ? भवन नहीं बना, इसलिए श्मसान है, पर श्मसान तो पूरी पृथ्वी है। आपका घर श्मसान है कि नहीं? कितने चूहे मरे, कितने मच्छर, मक्खी आदि कीड़े मरे हैं रोज घर में? आदमी भी घर में ही मरता है। दीवालें खड़ी हैं, इसलिए मकान है, परन्तु वास्तव में तो यह सब श्मशान है। यहाँ गुणस्थान, मार्गणास्थान, जीवसमास की बात नहीं कर रहे, यहाँ रत्नत्रय से मण्डित शुद्धात्मा की बात कर रहे हैं। हे ज्ञानी ! निश्चय से किस को भाना चाहता है ? आत्मा में अनंत स्वभाव हैं, अनंत धर्म हैं, पर उन सबमें ज्ञान ही को प्रधान कहा है । यहाँ पर दर्शन भी ज्ञान है, ज्ञान भी दर्शन है। सम्यक्त्व भी ज्ञान है और ज्ञान भी सम्यक्त्व है । चारित्र किसमें प्रगट हुआ है ज्ञान से ? जो सम्यक्ज्ञान प्रगट हुआ है, वह ज्ञान में ही हुआ है । ध्रुव सत्य यह है कि परमस्वभाव अपेक्षा आत्मा एकमात्र ज्ञायकस्वभावी है । पर व्यवहारीजनों से कहें, तो वह कहते हैं कि दर्शन को गौण कर दिया, चारित्र को गौण कर दिया । नहीं, आप ध्यान दो। आप विकल्प मत कीजिए, तत्त्व को समझिये । घी, दूध, दही, छाँछ, मक्खन, पनीर आदि नाम ले लीजिए, पर गोरस एक है। तत्त्व त्रयात्मक है। जिसने नियम लिया कि मैं दूध ही पीऊँगा, वह दही को नहीं खाता। जिसने नियम लिया कि मैं दूध नहीं पीयूँगा, वह दही खाता है। पर जिसने गोरस का त्याग किया है, वह दूध, घी, दही कुछ भी नहीं खाता । इसलिए एकमात्र ज्ञायकभाव में सम्पूर्ण स्वभाव है। लेकिन गोरस, गोरस है। जितनी पर्यायों के नाम लिये, सबके स्वाद भिन्न-भिन्न हैं। ज्ञायक है गो-रस । इसलिए निश्चय से कहना चाहिए कि दर्शन, ज्ञान, चारित्र वे तीनों आत्मा में हैं, इनका अधिकरण आत्मा है, इसलिए आत्मा की भावना करो। समयसार पंथ रूप में कही भी प्रचारित हो, पर पूरा समयसार नहीं बताते । कुछ गाथायें बताते हैं। तत्त्व का खुलासा होना चाहिए । तत्त्व नहीं खुला, कपड़े खुल भी गये, तो तत्त्व नहीं मिलेगा । सम्यक्दर्शन-ज्ञान Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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