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________________ समय देशना - हिन्दी १५४ प्रबल खड़ा है कि अशुभ कृत्य करते हुये भी मस्ती में जी रहे हैं । जितनी उत्कृष्ट संक्लेशता से कर्म का बंध किया था, उतनी उत्कृष्ट विशुद्धि से निर्जरा होगी। अब सिद्धांत को दूसरी भाषा में प्रयोग करो। जिस संक्लेशता से बंध किया, तद्रूप संक्लेशता से ही निर्बंध होगा। वहाँ संक्लेशता अशुभरूप थी, यहाँ संक्लेशता शुभरूप होना चाहिए। शुभोपयोग भी संक्लेश परिणाम है । आत्मप्रदेशों का चंचल होना संक्लेशभाव है। जब शुभ की क्रिया में लगोगे, तब भी आत्मप्रदेश चलाचल होते हैं। अशुभ की क्रिया में लगोगे, तब भी होते हैं। जब तुम योग को भी संभाल के बैठोगे, तब चंचल नहीं होंगे। इसलिए ध्यान में चंचलता कम होती है । पूजन कर रहे, ताली बजा रहे, तब उपयोग की चंचलता है, इसलिए आस्रव ज्यादा है, संवर-निर्जरा कम है। भले पुण्य का हो रहा हो, पर आस्रव है। लेकिन दोनों संक्लेशता है। चाहे तुम शुभ करो, चाहे अशुभ करो, संसार ही होगा। एक स्वर्ग तक ले जायेगा,एक नरक तक ले जायेगा, पर मोक्ष दोनों ही नहीं दिला रहे हैं। सुनो, रात्रि में भोजन का त्याग है, पर आपने रोटी की जगह दूध पी लिया, तो मुख दोनों से जूठा हुआ, रात्रिभोजन-त्याग का व्रत भंग हुआ ।सीमा में तो आ गये, पर दोष नहीं टला रात्रिभोजन का । और इसको भी शुभोपयोग कहते हैं। जो शुभ संक्लेश है, उससे भी बंध है। अशुभ संक्लेश है, उससे भी बंध है। संक्लेशता मोक्ष का साधन नहीं है, संक्लेशता बंध का ही कारण है। मोक्ष का कारण क्या है ? विशुद्धीसंक्लेशांङ्ग चेत् स्वपरस्यं सुखासुखम् । पुण्य पापास्रवौ युक्तौ न चेद्वयस्त्रवार्हतः ॥६।। आप्त मीमांसा ॥ विशुद्धि मोक्ष है, संक्लेशता बन्ध है । इसलिए प्रयास क्या करना है, कि हे भगवत् देव ! आपके चरणों में संक्लेशता की हानि के लिए विराजता हूँ, संक्लेश के लिए नहीं। शुद्धि के लिए विशुद्धि होती है। आत्मा के परिणामों की जो विशुद्धि है, वह कारण है, और शुद्धि कार्य है। विशुद्धि और शुद्धि में अंतर है। दोनों भिन्न हैं । कारण, कार्य भाव है। कैसा ? सम्यक्दर्शन कारण है, सम्यक्ज्ञान कार्य है, जबकि होते युगपत् हैं, तब भी कारण कार्य भाव है। सम्यक्त्व के अभाव में सम्यज्ञान नहीं होता। एक सत्य होने के उपरान्त भी कारण कार्य भाव है। इसी प्रकार विशुद्धि से ही शुद्ध होता है, पर विशुद्धि शुद्धि नहीं है, और शुद्धि विशुद्धि नहीं है। विशुद्धि कारण है और शुद्धि कार्य है। आचार्य जयसेन स्वामी की टीका गाथा - णाणह्मि भावणा खलु कादव्वा दंसणे चरित्ते य । ते पुण तिण्णिवि आदा तह्मा कुण भावणं आदे ॥११॥ ज्ञानी ! हम व्यवहार पक्ष को बहुत अच्छे से जानते हैं। जैनकुल में जन्म लेना ही बहुत सारा ज्ञान करा देता है और जिसे जैनकुल में जन्म लेने के उपरान्त भी जैनत्व का ज्ञान नहीं है, उसने जैनकुल में जन्म लेकर जैनकुल को नहीं समझा । तो जो व्यवहार पक्ष है, वह तो आपको कुलकृत प्राप्त है। कैसे चलना, कैसे उठना, कहाँ बात करना, ये तो तेरी कुल परम्परागत बातें हैं। जब इनको ये जीव नहीं समझता, तो वह धर्म को क्या समझेगा ? यदि इनको आप समझ चुके हैं, अब यहाँ जो समयसार की गाथा बोल रही है, वह कहेगी कि अब आप मुझसे कुलपरम्परा मत पूछो । कुल से रहित कैसे होना पड़ता है, वह मुझसे पूछो । कुलपरम्परा पूछना है तो श्रावकाचार से पूछो। मुनियों की कुलपरम्परा पूछना है, तो 'मूलाचार' से पूछो। पर मैं मूलाचार नहीं, श्रावकाचार नहीं, समयसार हूँ। मेरे में कुल मत खोजो, मेरे में कुलातीत खोजो। मक्खन खोजना है, तो दही को मथो, मक्खन मही में नही मिलेगा। लेकिन घृत में मक्खन खोजने मत जाना अन्यथा आपको For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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