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________________ समय देशना - हिन्दी १४२ पक्ष से शून्य होकर एक दिन तो स्वतंत्रता का वेदन कर लो। एक दिन न सही, एक मिनट कर लो, स्वतंत्रता का वेदन । मेरे में मनुष्य जाति नहीं है, मेरे में मनुष्यायु नहीं है, मेरे में मार्गणा व गुणस्थान नहीं है। मैं बन्ध से भी शून्य हूँ। मेरे में समाज क्या, संग क्या, सम्प्रदाय क्या, जाति क्या ? तू मेरा शिष्य पहले बना था, कि जीव पहले था ? क्या जगत की लीला है, अपनी स्वतंत्र सत्ता को कैसे खो रहा है। मेरा शिष्य तू नहीं बना, पर का शिष्य नहीं बना, पर का पति नहीं बना, पर की पत्नी नहीं बनी। जगत का कोई भी ज्ञेय किसी के ज्ञान को पराधीन नहीं करता। प्रमिति 'प्रमिति है, प्रमिति 'प्रमाण' नहीं है । प्रमाता प्रमाता है, प्रमेय 'प्रमेय' हैं; परन्तु प्रमेय प्रमाता नहीं है, प्रमाता प्रमेय नहीं है । प्रमाण प्रमाण है, प्रमाता का धर्म है प्रमाण, प्रमाण का फल है प्रमिति, प्रमाण का ध्येय है प्रमेया प्रमाता ध्रुव है, प्रमाण ध्रुव है, प्रमिति (जानन क्रिया) परिणमनशील है। प्रमेय प्रमेय है, प्रमेय कभी प्रमाण से कहने आया नहीं, हे प्रमाता ! तू अपने प्रमाण से मुझे प्रमिति रूप निहार । प्रमेय यानी ज्ञेय । प्रमेय ने किसी प्रमाता को किसी प्रमिति से च्युत किया नहीं। प्रमाता ने ही प्रमिति प्रमेय में प्रवेश किया। प्रमेय कभी प्रमाता में गया नहीं। हे प्रमाता ! तू अपने प्रमाण से अपने को प्रमेय बनाता, अपनी प्रमिति से अपने प्रमेय को निहारता, वही तुम्हारी शुद्धात्मा की शुद्धि है। अध्यात्म भाषा को न्याय भाषा में कहा जा रहा है। जिसे अध्यात्म निर्विकल्प ध्यान कहेगा, उसे दर्शनशास्त्र क्या कहेगा? हे प्रमाता ! अपने प्रमाण से, अपने को ही प्रमेय में, अपनी प्रमिति से जानो, यही निर्विकल्प ध्यान है । कण-कण स्वतंत्र है। ज्ञेयों ने ज्ञाता को भ्रमित नहीं किया , ज्ञाता ही ज्ञेयों में राग लेकर जाता है। प्रमिति का काम प्रमित यानी फल जानन क्रिया है। ज्ञान जानता है, ज्ञान का काम जानना है। प्रमिति जता रही है, क्रिया कर रही है । अज्ञानता की हानि हो रही है, उपेक्षाभाव जग रहा है। ज्ञाता ! तू ज्ञायकभाव में लवलीन हो जा। मैं ज्ञेय हूँ , मैं ज्ञाता नहीं हूँ। पर ज्ञेय ज्ञाता होते नहीं, पर ज्ञेय ज्ञाता कभी हुए नहीं, होंगे नहीं । परन्तु ज्ञेय तो ज्ञेय है, ज्ञाता नहीं। परन्तु ज्ञाता ज्ञेयों का जानने का राग लाता है। ज्ञेय ज्ञाता को राग उत्पन्न करते नहीं, ज्ञेय ज्ञाता हुए नहीं, ज्ञेयों ने ज्ञाता को बुलाया नहीं, ज्ञेयों ने ज्ञाता को कभी भगाया नहीं, ज्ञाता कभी ज्ञेय होता नहीं, ज्ञाता ज्ञेय में जाता नहीं, फिर भी ज्ञाता ज्ञेय में राग करके अपने ज्ञातृव्य भाव को खो रहा है। इसलिए ज्ञेय तो ज्ञेय है, ज्ञाता भी ज्ञाता है। हे ज्ञाताओ! ज्ञेय को ज्ञेय जानिये, ज्ञाता को ज्ञाता जानिये । निज ज्ञान, निज ज्ञेय, निज ज्ञप्ति ही तेरा ध्येय हो, पर-ज्ञान, पर-ज्ञातव्य तेरा स्वभाव नहीं है। ज्ञायकभाव ही तेरा स्वभाव है। ज्ञेयों ने तुझे भ्रमित किया नहीं, परन्तु ज्ञाता ही राग से भ्रमित हुआ है। पेन ज्ञेय है, ज्ञाता नहीं है। कितना महान है, जो कि त्रैकालिक अपने चतुष्टय में लीन है, किसी भी ज्ञाता से कहता नहीं, कि तू मेरा नाम ले । परन्तु ज्ञाता ज्ञाता होकर अज्ञाता है कि मेरा नाम ले रहे हैं। अरे ! इतने में निज का ध्यान कर लेता तो मेरा नाम क्यों लेता? मेरा नाम न लेता । मेरा ज्ञान स्वयंमेव हो जाता है, केवलज्ञान। ज्ञाता ! ज्ञेय में दोष देने की आदत छोड़िये। किसी भी मोदक ने तुझे बुलाया नहीं। लड्डू ने कब कहा या श्रीफल चढ़ाया कि आओ, मुझे खा जाओ? अपने उपादान को क्यों नहीं दोष देता है कि तू ही गया, तूने ही खाया, अब पेट दर्द कर रहा है तो तू ही भोग । परन्तु पर-ज्ञेयों से छूटने में पुरुषार्थ चाहिए, शुष्क हृदय चाहिए, सूखा हृदय । कुछ विषय ऐसे आते हैं कि मैं आपको शब्दों में बता नहीं सकता हूँ। जो मैं 'शुष्क' शब्द पर जोर दे रहा हूँ, वह अन्दर की अनुभूति बोल रही है। शुष्क हृदय चाहिए', यहाँ पर प्रेम, वात्सल्य पर नहीं जाना। यह सब राग की दशा है। ज्ञायकभाव तो वीतरागभाव मात्र है। जाननभाव भी रागभाव है, ज्ञायकभाव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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