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समय देशना - हिन्दी
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व्यवहार 'व्यवहार' है, व्यवहार 'निश्चय' नहीं है । व्यवहार 'निश्चय' का साधक है, व्यवहार ‘साध्य' नहीं है, साध्य निश्चय ही है। जलेबी, जलेबी है, रस, रस है। जलेबी में रस नहीं है, जलेबी के अन्दर रस है। सूखी जलेबी खा कर देख लेना (बिना रस की), कोई स्वाद नहीं आता। जलेबी में रस भरा गया है। जो भरा गया है, वह सत्य नहीं होता है। जो होता है, वह सत्य होता है। रस में रस भरा नहीं जाता, जलेबी में रस भरा जाता है। जलेबी रस से युक्त है, पर रस नहीं है।
भूतार्थ तो भूतार्थ है और अभूतार्थ भी अभूतार्थ है। विश्वास रखना, द्वैत भाव में सारा जीवन नष्ट हो रहा है। कम-से-कम वह श्रेष्ठमय है, जो भगवान् का द्वैत भक्त बनकर जी रहा है, वह कभी भगवान् बन जायेगा। पर तुम तो भोगों के गर्त में (द्वैत में) जी रहे हो। ये द्वैतभाव नीचे गिराने वाला ही है। जब तन व चेतन का द्वैतभाव भ्रमित करा देता है, तो पर का द्वैतभाव निज चैतन्य कैसे दिलायेगा? आप कहें या न कहें, पर आप वस्तुओं को अब देखते नहीं, पोते को दिखाने जाते हो मेला । जब मिलने का समय आया, तो मेला देखने चले गये । युवावस्था में कषाय, भोग, वासना मिलने नहीं दे रहे थे । अब ठण्डे पड़ गये न? ठण्डे (ठहरे) पानी में नीचे का मोती भी दिखता है। आप ठण्डे पड़ गये थे, फिर भी आप बच्चे के साथ घूमने गये थे। समझो, मैं क्या कह रहा हूँ। ठण्डे पड़ गये न? तो गर्मी की यादें भी छोड़ दो। ठण्डे तो पड़ जाते हैं, पर गर्मी की यादें ठण्डा पड़ने नहीं देती। इतना समझाना था।
ग्यारहवीं गाथा निश्चय-प्रधान है। निश्चयनय-प्रधान मत कहना। निश्चय शुद्ध है, नय'कथनशैली 'है, वह तो कहता है, पर वस्तु निश्चित होती है । व्यवहारनय अभूतार्थ है। जो शुद्ध नय है, उसे भूतार्थ कहा है। निश्चय में जो निश्चय को आश्रित करता है, वही सम्यग्दृष्टि है। निश्चय से ये हाथ है, अंजुली है, मुष्टि है, आशीर्वाद है। अंजुली पर्याय थी। पर्यायी के साथ हाथ की पर्याय भी बदल रही थी। कर ही नहीं बदल रहा है, करण भी बदल रहा है। करण नहीं बदलेगा, तो कर कैसे बदला? हाथ की पर्याय बदल रही थी, पर्यायी के परिणाम भी बदल रहे थे। जैसी पर्यायी की रचना होती है, वैसी पर्याय बनती है। ये मुनिराज आशीर्वाद भी देते हैं, तो अंजुली भी बनाते हैं। अंजुली बनाते समय आशीर्वाद नहीं देते है। यदि हर समय आशीर्वाद की पर्याय बनाये रखूगा, तो पेट नहीं भर पायेगा । ज्ञानी ! हर समय ऐसी पर्याय रहेगी, तो परमात्मा नहीं बन पाओगे। यह जैनतत्त्व है। यह है वस्तुस्वरूप। जहाँ लगाना चाहो वहाँ लगा लो । माँ के पास तू एक-सी पर्याय में नहीं जाता। एक पर्याय से सबको देखेगा, तो इस लोक में व्यभिचार छा जायेगा, विचार नाम की वस्तु नष्ट हो जायेगी, व्यभिचार खड़ा हो जायेगा । इसलिए पर्याय ही नहीं बदलती है, परिणाम भी बदल रहे हैं। ये अज्ञानियों के शब्द हैं कि 'पर्याय का परिणमन पर्याय में हो रहा है, तू तो शुद्ध द्रव्य है।' विषय को समझो। द्रव्यदृष्टि से शुद्ध है, परन्तु द्रव्य अभी विकारों से युक्त है। चार्वाक हैं सब- 'जब तक जीयो सुख से जीयो, नहीं हो तो ऋण लेके जीयो। किसने देखा नरक ?' ये चार्वाक है विषयों में समाधि नहीं, समाधि में विषयानुभूति होती है।' तो समयसार ग्रन्थ का दुरुपयोग किया है। आप चाहो तो मैं कई अर्थों में इसको सुना सकता हूँ। वे कई रूप यहीं रह जायेंगे, एकरूप नहीं हो पायेंगे । एकरूप को प्राप्त करना है तो शुद्धनय से कथन करना पड़ेगा। समाधि में भोग नहीं होते और भोगों में समाधि भी नहीं होती। ध्रुव सत्य है। । भगवान् महावीर स्वामी की जय ॥
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