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________________ समय देशना - हिन्दी ६६ म्लेच्छों के नमस्कार करने पर ब्राह्मण अथवा यतियों ने कहा- स्वस्ति भवतु । 'स्वस्ति' शब्द का अर्थ अविनश्वर था, अविनाशी था; लेकिन जैसे ही यतीश्वर ने कहा 'स्वति भवतु', उसका अर्थ न जानते हुए जैसे मेढ़ टकटकी लगाकर देखता है, तथा ऐसे ही जो आत्मा को नहीं जानते हैं, वह भी उसी मेढ़े के समान भ्रान्ति से देखता है । यह अज्ञानता है । भाषा में अनुभूति कोखो रहे हो । भाषा अनुभूति नहीं है । लड्डू की अनुभूति कैसी है ? जैसी है, वैसी है। तुम झगड़ते हो कि अनुभूति ऐसी है वैसी है। इतने में मुनि बन जाता तो अनुभूति ले लेता कि अनुभूति कैसी है । जीवन क्या, पर्याय की पर्याय निकाल दी, इन विद्वानों ने काले बाल सफेद कर लिये, लेकिन इनका नय का राग नहीं छूटा। क्षायोपशमिक भावों की भाषा भिन्न-भिन्न है, क्षायिकभाव की भाषा एक है, निरक्षरी । जो अट्ठारह भाषा और सात सौ लघुभाषा भगवान् की वाणी में खिरी कह रहे हो, वे भाषायें आपकी भाषा में ढली हैं, पर भगवान् की भाषा निरक्षरी है और यह उपचार कथन है। भिलाई में इस्पात का कारखाना है । वहाँ तो बड़ी-बड़ी शिलाएँ बनती हैं, जो आपको दे दी जाती हैं, आपको जो बनाना है, बना लो। आप कुंभकार के घर चले जाओ, खदान से मिट्टी आई, पर आपके मस्तिष्क में बरतन का जो आकार आ गया है, चाक वैसे ही ढाल देता है । जो आकार को देखेगा, वह झगड़ा करेगा और जो मिट्टी को देखेगा, वह कहेगा कि कुछ नहीं, मिट्टी है, विवाद मत करो । जितने विवाद हैं, आकारों में हैं; आकारवान् में नहीं हैं। पर्यायों में विवाद है, पर्यायी निर्विवाद है। अज्ञानी लोक पर्यायों के विवाद में पूरा पर्यायी को ही कलुषित किया है। यदि पर्यायों को गौण करके पर्यायी को निहारेगा, तो जीव भी एक द्रव्य है, अनादि से है, अनंतकाल तक रहेगा । जो उत्पन्न हुई है, वह नष्ट हो जाती है । धिक्कार है उन अज्ञानियों को, जो सम्मानों में जीवन को नष्ट कर रहे हैं । आज जगत् में क्या हो रहा है । एकेन्द्रिय की पर्याय, जिसको फूल के रूप में लाये, जो तोड़ने से मृतक हो गया ऐसे एकेन्द्रिय के मृतक शरीर को अपने गले में धारण करके अभिमान में डूब रहा है। जो पुष्पमाला हार बनकर आयी है, उसका वह शरीर मृतक था, कि नहीं ? कैसा है तू, जो एकेन्द्रिय के मृतक शरीर को गले में डाल कर खुश हो रहा है ? पर के कलेवर को लटकाकर तू भगवान् नहीं बन जायेगा। यही कारण है कि जिनशासन में निर्ग्रन्थ मुनि टीका नहीं लगाता, भस्म नहीं लगाता, रज नहीं लगाता । कर्मरज जो लगी है, उसे वह हटाता है। यह चिपकानेवाला धर्म नहीं है, छुटानेवाला धर्म है। तुम चिपक रहे हो। विभक्त्वभाव धर्म है, एकत्वभाव धर्म है, कि मिश्रभाव धर्म है? विभक्त्वभाव धर्म है। अरे! यही सबसे कठिन धर्म है। आपको अभी स्वतंत्रता का भान नहीं है। ये ऊपरी - ऊपरी भाषा को मैं नहीं मानता। क्या करूँ, महाराज! मुझे वैराग्य हो गया है, परन्तु घर की व्यवस्था देखना है । हे ज्ञानी ! जब तू त्रैकालिक स्वतंत्र तत्त्व है, तो घर तेरी व्यवस्था में कहाँ से आ गया है ? अभी घर में तू लगा है, घर तेरे में नहीं है। आप क्या कर रहे हो, इससे मुझे लेना-देना नहीं है, पर सत्य बोलो। ऐसा मत कहना कि माँ-पिताजी नहीं छोड़ते हैं। ऐसा कहना कि मैं पिता को अभी भी पिता मान रहा हूँ, इसलिए नहीं छूट रहे हैं। जिस दिन ध्रुव चैतन्य को जान लेगा, उस दिन कौन किसको बाँधकर रख पायेगा ? जब तन पिंजड़े से निकलेगा, तो कौन रोक सकेगा ? "होता स्वयं जगत परिणाम', “आत्मस्वभावं परभाव भिन्नं ."। इस सूत्र को तोते की तरह नहीं रटना । जंगल में शिकारी आता है, दाने का लोभ दिखाता है, जाल में फँसना नहीं चाहिए । परन्तु शिकारी आया और तुम जाल में फँस जाते हो, फिर भी बोलते हो 'शिकारी जंगल में आता है . I' सम्यक्दर्शन-ज्ञान-चारित्र, यही तो जीव में है । इनके बिना जीव कैसा ? रत्नत्रय तो आत्मा में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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