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________________ समय देशना - हिन्दी व्यवहार नहीं कहना चाहिए। ऐसा मत बोलिये आप, बोले क्यों? क्योंकि पदार्थ का ज्ञान कराने के लिए अनार्य को अनार्य की भाषा में ही बोलते हैं। अनार्य को अनार्य की भाषा में नहीं समझायेंगे तो वह समझता नहीं है। इसी तरह व्यवहारनय के बिना परमार्थ का उपदेश करना अशक्य है। जो निश्चय को जानता है, उसे व्यवहार का आलम्बन लेना ही होगा । व्यवहार के कथन किये बिना, निश्चय का कथन होता नहीं। वे घोर अज्ञानी जीव हैं, जो परमार्थ-परमार्थ चिल्लाते हैं। चाहे निश्चय शब्द का प्रयोग करें, चाहे व्यवहार शब्द का प्रयोग करें, जब तक तुम्हारे मुख से प्रयोग चल रहा है, तब तक व्यवहार ही है। कुछ नहीं है, अहंकार की पुष्टि है। वस्तुस्वरूप तो त्रैकालिक ध्रुव है । वर्द्धमान का मार्ग तो एक था, यथार्थ मानिए । कल्पसूत्र को भी मैंने पढ़ा है। कल्पसत्र में भी भगवान् आदिनाथ को करपात्री लिखा है। मुनि के जिनकल्पी, स्थविरकल्पी दो भेद किये हैं। दिगम्बर मुनि को जिनकल्पी तथा श्वेताम्बर मुनि को स्थविरकल्पी कहा है । पर दिगम्बर आम्नाय में तीर्थंकर-जैसी शुद्ध चर्या करनेवाला जिनकल्पी कहा है ? काँटा लग जाये तो निकालना नहीं, कंकण लग जाये तो निकालना नहीं, चींटी आ जाये तो हटाना नहीं ये जिनकल्पी मुनि की चर्या है। पंचमकाल में जिनकल्प होता नहीं। पंचमकाल में जितने भी मुनि हैं, वे स्थविरकल्पी हैं। इनको दूसरे शब्दों में , उपेक्षा संयमी कहो। जिनकल्पी यानी उपेक्षा संयमी, स्थविरकल्पी यानी, अपहृत संयमी। 'प्रवचनसार' में ये दो भेद किये अपहृत संयम और उपेक्षा संयम । उपेक्षा संयम यानी कि साक्षात् तीर्थंकर की चर्या । अपहृत संयम यानी कि चीटी आ जाये, तो पिच्छी से धीरे से दूर कर देना। यदि मुख से फूंक दिया, तो अपहृत संयम में दोष लग जायेगा। हाथ पटक दिया तो देशसंयम भी गया। असंयमी है। जो भाव को संभाल कर चलेगा, वही संयम को पाल पायेगा और जो शरीर को संभालेगा, वही भावों को संभाल सकेगा। जिसका शरीर ही नहीं संभल रहा है, वह भावों को क्या संभालता होगा ? समझिये, जिनका तन ही अब्रह्म में जा रहा है, उसके मन के ब्रह्म की बात क्यूँ कर रहे हो? यही कारण है कि तुम निर्ग्रन्थों के सामने तत्त्व को कह नहीं पाते हो, क्योंकि आप परभाव में लिप्त हो । परमात्मा की बात शब्दों में कर लीजिए. परन्त ब्रह्मभाव तभी प्रगट होगा. जब तन का अब्रह्म छटेगा। बाकायदा व्यापार चल रहे हैं, संतान को जन्म दे ही रहे हो। शब्दों के भगवान आत्माओ! भगवत् स्वरूप का कथन तो कर पाओगे, लेकिन उद्भव स्वरूप को उद्घाटित नहीं कर पाओगे । भाषा को धर्म मान बैठे हैं, जैसे भिन्न दर्शनों में अंग-अंग को परमात्मा मान लिया है और पूज रहे हैं, ऐसा मिथ्यात्व जैनदर्शन में कब से आ गया? अंग-अंग की पूजा कब से प्रारंभ हो गई ? नय तो प्रमाण का एक अंश है। तो उन्होंने तो तन के अंगों को पूजा, पर तुमने शब्दों के, नयों के अंगों को पूजना प्रारंभ कर दिया, और कहते हो खुश होकर कि मैं व्यवहार को माननेवाला हूँ, तो दूसरा कहता है कि मैं निश्चय को माननेवाला हूँ। तुम दोनों मिथ्यादृष्टि हो । दोनों नय धर्म नहीं हैं, रत्नत्रय का नाम धर्म है। उस रत्नत्रय का व्यवहार व निश्चय से कथन करो। धर्म तो रत्नत्रय है, नय धर्म नहीं है। नय तो समझाने की रीति है, पद्धति है, शैली है। नय आलापपद्धति है। नय वस्तु के लिये है। नय वस्तु नहीं है। एक मुमुक्षु तत्त्वज्ञानी मिला । मैंने उससे कहा, कि असद्भुत व्यवहार नय से ऐसा बोलना चाहिए, सद्भूत व्यवहारनय से ऐसा बोलना चाहिए। वह बोला- हे महाराज ! यह नय-मय मत सुनाओ। आप तो शुद्धात्मा सुनाओ । मैंने कहा हे मुमुक्षु ! नाय-माय की हम नहीं सुनाते, तू नय को मय कह रहा है । नायमाय की कहने से समयसार नहीं मिलता, नय को कहने से समयसार मिलता है। समयसार समय पास करने के लिए नहीं है, वस्तुस्वरूप को समझने के लिए है। इसलिए यहाँ पर ऐसा अभिप्राय समझना चाहिए। कोई एक साधु म्लेच्छों की बस्ती में गया, तो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004059
Book TitleSamaysara Samay Deshna Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVishuddhsagar
PublisherAnil Book Depo
Publication Year2010
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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