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समय देशना - हिन्दी देते हो कि नहीं? समय दिया था। समय न देते तो आप डॉक्टर नहीं बन पाते। हे ज्ञानी ! तूने पुद्गल की नाड़ी पकड़ने के लिए पूरी युवा पर्याय दे दी। और पकड़ा किसको ? नारी को। ऐसे निजी नारी को, निज की कषायों की नारी पकड़ता, तो तुझे पुद्गल नारी न मिलती। तुझे मिलती चेतन मुक्तिनारी। पर आपने समय नहीं दिया। समय दो तो 'समय' समझ में आता है। खीर गर्म है, रोओ मत, हवा मत करो, उसे समय दो। गुस्सा करोगे तो कर्म आश्रव होगा। समय दो तो खीर ठण्डी हो जायेगी और कुछ भी नहीं होगा। तू माला फेरने बैठ जा, खीर ठण्डी हो जायेगी। वह अपने समय पर ठण्डी होगी। उसमें सौपाधिक दशा अग्नि है। वह अपने आप विलग हो जायेगी, खीर ठण्डी होगी, फिर खा लेना । ऐसे समय दो भोगों की भट्टी से आत्मखीर को उतारकर रख लो। न पंखा चलाओ, न इँको । तुम ध्यान में बैठ जाओ, खीर ठण्डी हो जायेगी। देश-विदेश में कितने ही युद्ध हो जायें, पर अन्त में समय ही साथ देता है । चक्रवर्ती से पूछिये न, जो वज्र कपाट तोड़ता है, जिसमें कितनी तीव्र क्षमता होती है। वह गुफाएँ एक या दो दिन नहीं, छः मास तक खुली रहती हैं। ऐसे प्रबल प्रचण्ड अग्नि की गुफाएँ ठण्डी होती हैं कि नहीं? जब वे गुफाएँ ठण्डी हो गईं, तो तेरे अन्दर की कषाय कैसे ठण्डी नहीं होगी? समय दो, कुछ मत करो। यही तो समयसार है।
मा चिट्ठह मा जंपह, मा चिंतह किंजेण होइथिरो। कुछ नहीं करना चाहते हो, तो कुछ भी मत करो। मुनि क्यों बना? कुछ नहीं करने का अभ्यास कर रहा हूँ। कुछ भी नहीं करने का मतलब क्या है ? शरीर छोड़कर बैठना बहुत सरल है। कुछ ऐसे भी लोग मिल जायेंगे । एक सज्जन ऊँचे पद पर थे। कुछ दिन बाद उनका कार्यकाल समाप्त हो गया। वह सज्जन अब खाली रहने लगे। वह मुझसे आकर बोले- 'मैं तनाव में हूँ। मैंने शासन से कहा कि मुझे एक रुपया भी नहीं चाहिए, मेरे पास बहुत है, पर मुझे काम करने दो।' मैंने पूछा 'क्यों ?' उसने कहा, 'महाराज ! जो बीसपच्चीस साल से आर्डर दे रहा हो, वह खाली बैठा हो, मन नहीं लगता है। मैंने उससे कहा- 'खाली समय को जिनवाणी में लगा दो। वह बोला- 'मन नहीं लगता है। तब मैंने कहा- पण्य मानो जो आप को जिनवाणी में लगा रहे हो। नहीं तो ताश खेलते। टी.वी. आदि देखते मिल जायेंगे, पर हृदय की कैसिट में जो चित्र भरे हैं, उसे देखना पसन्द नहीं करते। तत्त्व की गहराई समझ में तभी आती है, जब हृदय से तत्त्व सुनता है। वचन से तत्त्व सुननेवाला कभी आनंद में नहीं डूब सकेगा। हृदय से तत्त्व सुनेगा, वह निमग्न होगा | जो शब्दों को कान से सुनायेगा, वह कर्णप्रिय हो जायेगा, पर आत्मप्रिय नहीं होगा । यह वीतरागवाणी कर्णप्रिय नहीं है, ये वीतरागवाणी अन्त:करण प्रिय है। पानी मुख से पिया अवश्य जाता है, पर मुख में रखा नहीं जाता। ध्रुव सत्य बोलिये, यथार्थ क्या है ? जितना भोजन-पानी जाता है, सभी मुख से ही जाता है, और स्वाद भी मुख ही में हो, लेकिन अधिक समय तक रखते क्यों नहीं हो? तुरंत अन्दर ले जाते हो । मुख से खाया-पिया तो जाता है, परन्तु मुख में रखा नहीं जाता, रखा पेट में ही जाता है। सम्यग्दृष्टि-जीव तत्त्व को सुनता जरूर है, पर कानों के लिए नहीं सुना जाता , अन्त:करण के लिए सुना जाता है। मुख में ग्रास मुख के लिए नहीं रखा जाता है, पेट भरने के लिए होता है । ऐसे ही कानों से सुना तत्त्व कान के लिए नहीं, अन्त:करण के लिए होता है।
___ आज घर जाना, अच्छी-अच्छी मिठाई लाना, मुख में रखना और बाहर निकालना । गंदगी कर दोगे और पेट भी नहीं भरेगा। आज मुमुक्षु के साथ यही हो रहा है। वे जिनवाणी को मुख में रख रहे हैं, और बाहर निकाल रहे हैं, सो कचड़ा तो फैल गया, लेकिन शुद्धात्म अनुभूति का पेट नहीं भरता है । ग्रास मुख में रखने
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