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समय देशना - हिन्दी भिन्न है। और जीवत्व की दृष्टि से देखें तो दोनों ही जीवतत्त्व हैं, दोनों ही जीवपदार्थ हैं, अस्तिकाय हैं। हम किसके ऊपर बरसे उन दो के मध्य में, जैसे कि चक्की के मध्य में धान का छिलका उतर जाता है। तेरा सुख राग का पाटा है। तेरा बेटा राग का पाटा हो गया, और पड़ोसी का बेटा जिसने गाल पर चाँटा मारा था, वह द्वेष का पाटा हो गया। उन दोनों के मध्य में आप हैं। ध्यान देना, जब तेरी अन्तिम श्वास भरेगी न, तुझे ये ऊपर ले जायेगा। पर ध्रुव सत्य है, कि एक के राग में दूसरे के द्वेष में तेरी आत्मा -
रागद्वेष द्वयी दीर्घ, नेत्राकर्षण-कर्मणा ।
अज्ञानात् सुचिरं जीवः, संसाराब्धौ भ्रमत्यसौ ॥११॥ इष्टोपदेश। आपको शुष्क नहीं बना रहा हूँ, आपको निर्मल बना रहा हूँ । व्यवहार में बेटे की रक्षा का भाव तो रखना। ऐसा थोड़े ही है कि बेटा पिट रहा है और तुम देखते रहो । उसकी रक्षा तो करना, पर दृष्टि यही रखना, कि मुझे जैसे इसकी रक्षा करना है, वैसे ही पड़ोसी के बेटे की भी रक्षा करना है, क्योंकि दोनों जीवद्रव्य हैं। एक का भी घात होता है तो, हिंसा का दोष लगेगा। धर्म की प्रतिज्ञा लेना बहुत सरल है, पर धर्म का बैलेंस (संतुलन) बनाकर जीना, ये कठिन है। धर्म यह है कि निज सुत को पिटने नहीं देना, साथ ही पर सुत को पीटने नहीं जाना । दोनों धर्म सध गये। निज सुत को पिटने नहीं दिया, तो घर का धर्म सध गया और पर सुत को पीटने नहीं दिया, तो परमार्थ का धर्म सध गया। ऐसा उपाय करना। सम्हालना तो पड़ेगा। इसके सम्हाले बिना ऊपर गमन नहीं है, क्योंकि पहला अणुव्रत भी नहीं है । यदि ऐसे भाव आ गये कि मैं तुम्हें देखता हूँ इसने, ऐसे भाव क्यों किये? तो, ज्ञानी ! तेरा अहिंसाणुव्रत चला गया, आर्त्तध्यान कर लिया। किसी का कुछ कर पाओगे ? परन्तु सम्यग्दृष्टि संयमी ध्यानी जीव जो मुझे, साइकिल पर ले जा रहा है, उससे भी हीन हो आप क्या ? वह साइकिल पर जा रहा है, इधर-उधर देख भी रहा है, फिर भी देखो कि हाथ तो हेंडल पर है, परन्तु अंगुलियाँ ब्रेक पर हैं। वेग में चलता है, परन्तु आवेग में नहीं आता। मोक्षमार्ग में वेग में चलना चाहिए, परन्तु आवेग पर नहीं चलना चाहिए, उस पर ब्रेक होना चाहिए। जैसे भीड़ में ब्रेक लगाना आवश्यक समझते हो, ऐसे तत्त्वज्ञानी सच्चा भावलिंगी मुमुक्षु जीव कंकण-पत्थरों की, शब्दों की, उपसर्गों की भीड़ में अपने परिणामों की आक्रोश में ब्रेक लगाकर रखता है। परम सत्यार्थ यही है। परन्तु कभी-कभी वेग तेज होता है, तो ब्रेक फैल हो जाता है। तो कर्म का विपाक जब तीव्र उदय में आता है, तो बाँध भी टूट जाता है। जीवन निकल गया, गाड़ी अचेतन है, उसमें तो ब्रेक लगा लिया, पर चेतन में ब्रेक आज तक नहीं लगा पाये । यदि ब्रेक लगा लिये होते, तो कपड़ों में नहीं बैठे होते । यही कारण है कि दर्शन-ज्ञान-चारित्र आत्मा का जो धर्म है, उसे भी आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी कह रहे हैं कि ये तेरा ज्ञायकभाव नहीं है, फिर कहाँ तू कर्म की प्रकृतियों की बात कर रहा है ? वे तो पौद्गलिक हैं, रहेंगी। पर तू अपने ज्ञायकभाव को भूल गया।
ऐसा दर्शन आपके देश में है, जो मूर्ति को नहीं पूजते, फोटो को नहीं पूजते, प्रतिमा को नहीं पूजतें, अग्नि को पूजते हैं। अग्नि उपासक । जिसे लोक में देव कहकर पूजा करते हैं, ऐसी पूज्य अग्नि को लौह की संगति में पिटना पड़ता है। जिसे देवता बोलता था, उसे भी पिटना पड़ता है। हे मुमुक्षु ! तुम परम आराध्य देव हो। भगवान आत्माओ ! इस पुद्गल पिण्ड के साथ कैसे तुम देव हो, तुम पिट रहे हो? और भोगों का घन पड़ रहा है। कहाँ गई देवत्व की शक्ति ? यदि आत्मतत्त्व पर दृष्टि है, तो शब्दों के समयसार में नहीं जाना। एकान्त में बैठकर समयसार का वेदन भी करना कि मेरी धारा कहाँ है? समझ रहे हैं न आप? तन की धारा दिखे या न दिखे, पर ध्रुव सत्य ये है कि आप समय नहीं देते हो। यह बताओ कि डॉक्टर बनने के लिए समय
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