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सैंधव युगीन पावन तीन शिखरें
संघव मुहरों पर अंकित अभिलेखों में जहाँ तहाँ तीन शिखरें दिखाई पड़ती हैं जिन्हें पुराविदों ने अपनी काल्पनिक विदेशी उड़ान में डेरी की चोटियाँ कहना चाहा है। इस प्रकार वे संभवतः सिंधुघाटी सभ्यता में गौ पालन को महत्ता देने का प्रयास कर रहे थे किंतु भारतीय परिप्रेक्ष्य में वह बेहद अटपटी कल्पना है। यहाँ के गोपुर तो नैसर्गिक वातावरणी होते थे। शिखरों का संबंध तो सदैव मंदिरों से ही रहा है जो एक और दो तो बहुधा दिखी हैं, किंतु तीन शिखरों का एक साथ होना जिन वैभव को ही दर्शाता है। तीन शिखर मंदिर ही नहीं रत्नत्रय के भी द्योतक होते हैं।
शिखर तीर्थ जैनियों का एक ऐसा तीर्थ है जिसे शाश्वत तीर्थ कहा जाता है जिन धर्म में किसी क्षेत्र का महत्त्व तभी माना गया है जब वहाँ किसी तपस्वी के चरण पड़े हों, किसी तपस्वी ने तप किया हो, या जहाँ से तपस्वी मोक्ष गए हों। इस दृष्टि से भरत क्षेत्र के इस भारत का कण कण पवित्र रहा है क्योंकि सदैव ही यहाँ तपस्वी रहे। उन्होंने तप किया, भ्रमण किया, तीर्थंकरों के समवसरण लगे। बड़े बड़े संघों में तपस्वियों ने वैभव को त्यागकर वनों की राह ली, पर्वतों की गुफाओं कंदराओं को अपना ठौर बना नैसर्गिक आपदाओं को सहन किया और हारे नहीं। पर्वत के शिखरों पर गहन ध्यान चिंतन किया और वहीं अपनी नश्वर देह अविचलित हो ध्यानस्थ त्यागी। ऐसे पर्वत और उनकी शिखरें आज भी प्रतिदिन जैन धर्मियों व्दारा तीर्थयात्रा का केन्द्र बनी हुई हैं किंतु किसी नदी को मात्र नदी होने से ना तो पवित्र माना है ना ही उसकी पूजा की है। किसी भी पत्थर शिला, शैल, शिखर, वृक्ष, यक्ष, पशु, देव, दानव, नदी, घाट, समुद्र आदि को ना तो पवित्र कहा है ना ही पूजा है। शिखर तीर्थ को तीर्थराज कहा जाता है क्योंकि वहाँ से न केवल 20 तीर्थंकरों ने तप करते हुए देह त्यागी हैं बल्कि करोड़ों केवल ज्ञानियों ने भी वहाँ से तप करते हुए मोक्ष प्राप्त किया है सँघव युग में भी वे शिखर वैसी ही प्रसिध्दि प्राप्त थे जैसी आज इसे कुछ सीलांकनों में देखा जा सकता है। वत्स 153,233,648 मैके 159,174,202,290,405,407,499,511,548,680, मार्शल 20, 54, 102, 130, 139, 186, 197, 201,247, 276, 253,289322, 343, 346,416, 420,459,526ब आदि जिनमें हाइन्ज मोडे और मित्रा की यहाँ प्रदर्शित सील सर्वा
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धिक विशेष है। इसमें सैंधव युगीन एक ऐसे मंदिर को दिखलाया है जिस में तीन शिखरों के साथ साथ गर्भगृह में 21 आराध्यों को भी प्रस्थित दर्शाया गया है साथ ही तीन लकीरें वहीं आगामी आराध्यों के भविष्य में होने का संकेत देती हैं इस प्रकार कुल 24 इष्टों अथवा आराध्यों का संकेत उस वेदपूर्व काल में मात्र तीर्थंकरों की ओर संकेत करता है क्योंकि शेष सब धर्म तो अर्वाचीन हैं। अर्थात वह 21वें तीर्थंकर नमिनाथ का काल था। इसका दूसरा प्रमाण बाहरी घेरे की छल्लियाँ दर्शाती हैं जो एक ओर तीन तो दूसरी ओर चार हैं। अर्थात वे जैन मान्यता के तीसरे और चौथे काल को दिखलाती हैं जब तीर्थंकर जन्मे थे। उन शिखरों पर जाकर सभी ने तप किया, गुण स्थान बढ़ाए और कायोत्सर्ग में लीन होकर मोक्ष गए। वे सीलें इस प्रकार हैं, देखें
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