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भूमिका
परम्परागत आधारों पर पलती बढ़ती, लंबे काल से अनुभव जन्य ज्ञान से सिंचित अपनी मूल संस्कृति को पहचानकर, अपनी जड़ों को खोजकर उन्हें मजबूत बनाना और उसे सही रूप में आगे बढ़ाना प्रत्येक भारतीय का कर्त्तव्य है । वह परम्परा देश, जाति, धर्म, सांप्रदायिकता और रंग, लिंग भेद से परे है क्योंकि वह संवेदना से जुड़ी ऐसी परंपरा है जिससे प्रत्येक संसारी का जीवन जुड़ा है। "प्रज्ञा आधार" सहित प्रस्तुति ही किसी विषय को पुरातत्त्व के संदर्भ हेतु सार्थक एवं रुचिमय बनाती है । जिस समय हड़प्पा और मोहन्जोदड़ो के टीले पुरातत्त्वज्ञों की दृष्टि में आए तब तक उनकी ईटों का भारी अंबार सहज ही लोगों द्वारा उठा लिया जा चुका था । सतह पर उपलब्ध सिक्के और सामग्री भी अधिकांशतः नष्ट किए जा चुके थे । यह तो उस काल के विदेशी पुरा विशेषज्ञों का अति दुर्लभ योगदान है कि उन्होंने उन टीलों की सावधानी पूर्वक खुदाई करवाते हुए प्रत्येक प्राप्त सामग्री को सूक्ष्मता से मिलाकर सावधानी पूर्वक उनके चित्रों को न केवल दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया बल्कि उस सामग्री को भी सावधानी से सुरक्षित कराते हुए संग्रहालयों में अध्ययन हेतु उपलब्ध भी करा दिया ।
हड़प्पा और मोहन्जोदड़ो की दीर्घ उत्खननों से प्राप्त सामग्री "भारत-पाकिस्तान" विभाजन के बाद सहज देखने हेतु सुलभ न होने से व्यापकता से खोजे जाने पर अनेकों स्थानों पर लगभग वैसी ही सामग्री पाई गई है। उन सभी स्थानों को भारत एवं पाकिस्तान के संबंधों में स्थिरता आने पर दर्शकों हेतु संभवतः सुरक्षित भी किया जाएगा । उन सभी को "सिंधु घाटी सभ्यता के प्रतीक" होने की पहचान मिली । उनसे प्राप्त मृद सीलों के अलावा धातु के सिक्के और सीलें भी सावधानी से साफ करके सुरक्षित की गईं । उनके चित्र लिए गए और अपनी-अपनी खोजों से प्राप्त सामग्री के केटालॉग भी शोधकर्ताओं ने प्रस्तुत किए उन शोधकर्ताओं की अति लम्बी सूची है। सभी का अति विशेष योगदान रहा है किन्तु जो खास शोधकर्ता उभरकर सामने आए हैं वे वत्स, मैके, मार्शल, पारपोला, पोसेल, फेयरसर्विस हैं जिनका सहारा प्रमुख रूप से मैंने अपने यहाँ प्रस्तुत अध्ययन हेतु चुना है । पुरालिपि पाठकों में भी अनेक नाम हैं जिनमें मैंने अति विशेष श्री महादेवन की कानकास का सहारा लेकर श्री राव, श्री मिश्रा और अन्य को उनके चिंतित विषय में बांधा है । मेरा उद्देश्य किसी की समीक्षा करना नहीं किंतु उस अपठ लिपि के रहस्य को सामने लाना रहा है जिसे मैंने "जैन" भूमिका में सहज ही समझ पाया है । पुरालिपि पाठकों का यही कहना है कि उन्हें किसी भी प्रकार से पुरा "कुंजी" का संकेत नहीं मिला इसलिए वे पुरालिपि की भारतीय भूमिका को दृष्टिगत रखते हुए वैदिक और माहेश्वर सूत्र तथा अनुष्टुप छंद के सहारे उसे पढ़ने का प्रयास कर पाए हैं । जहाँ उन्हें संकेत और चित्र भी दिखे, उन्होंने उन्हें "अक्षर मानते हुए लिपि को पढ़ने का प्रयास किया है और रेबस की विधि से कुछ अनुमानित आधार पर बढ़ते हुए अर्थ निकाला है । इस दिशा में श्री महादेवन का कान्कार्डेस ही दिशाबोध हेतु बहुत बड़ी सहायता बनकर सामने आता है । उनकी दृष्टि में "पुरालिपि के संकेत और चित्र मात्र अक्षर नहीं एक-एक विशेष विषय की ओर संकेत करते हैं" और अध्ययन करने पर यही तथ्य सामने भी आया है ।
जैन "दैनिक पूजा" में संकेतों का अत्यंत महत्त्व है । प्रत्येक पूजा करने वाला जैन जिन धर्म के मंदिर में उन्हीं संकेतों को आधार बना अपनी भक्ति भावना की अभिव्यक्ति करता है । जैन पूजा में किसी भी क्रिया को अंधविश्वास नहीं ठोस आधार पर सार्थक अभिव्यक्ति दी गई है । जिस प्रकार + चारों गतियाँ और स्वस्तिक, उन गतियों में संसारी आत्मा का भ्रमण दिखलाते
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