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________________ 395 386- खंडित। 387- भवचक से पार उतरने दो धर्म ध्यानों का स्वामी चार धर्म ध्यान धारकर पंचाचार करता है । 388- भवघट में गुणस्थानोन्नति करते जीव ढ़ाईद्वीप में समता लाकर निश्चय-व्यवहार धर्म का पालन करते हैं । 389- महाव्रती ने सल्लेखी चतुर्विध संघाचार्य की शरण ली । 390- आर्यिका एवं मुनियों की गुणस्थानोन्नति स्वसंयमी अर्धचक्री के होते हुए भी संघाचार्य के समीप पुरुषार्थ से होती है । 391- पंचमगति के लिए दो धर्म ध्यानों का स्वामी आरंभी गृहस्थ की भूमिका से उठकर तीन धर्म ध्यानों का स्वामी और स्वसंयमी बनता है । 392 स्वसंयमी आरंभी गृहस्थ तीन धर्म ध्यानों का स्वामी चारों कषायों को त्यागकर आत्मस्थ होने के लिए मन को स्थिर करके वीतरागी तपस्या करता है । 393- संसार में द्रव्यलिंगी पुरुष ही तीर्थकर प्रकृति बांधते और आत्मस्थ होकर स्वसंयम धार पंचमगति हेतु संघाचार्य की शरण में व्यवहार धर्म का संयम स्वीकारते हैं। 394- अरहंत पद की प्राप्ति निश्चय-व्यवहार धर्म साधना से ही संभव है पुरुषार्थ क्रमशः बढ़ाने वाले ही सल्लेखना धारकर तीन शुभ ध्यानों से सिद्ध प्रभु को ध्याते हैं और पदमासित जिन की शरण में तद्भवी मोक्ष बांधकर द्वादश तप तपकर पंचमगति पाते हैं । 396- रत्नत्रय धारने वाले (जंबूद्वीप में) छत्रधारी राजा हों या सचेलक, गुणस्थानोन्नति करके सप्त तत्त्व का चिंतन करते वे अरहंत सिद्ध के निश्चय व्यवहार धर्म की शरण में वैराग्य तपस्या करते हैं । 397- अरहंत की शरण में क्षयोपशमी जीव भवघट से तिरने वीतरागी तपस्या करते हैं । 398- (पं 1) तीर्थकर बनने के लिए आत्मस्थ अष्टापद की तरह न हार वाले बनकर भवघट से तिरने वाले को ढ़ाई द्वीप में चारों कषायों को त्यागकर आत्मस्थता रखना पड़ती है ।। (42) अदम्य पुरुषार्थी सिद्धत्व के लिए छत्री (छत्रधारी राजा) हो या तपस्वी, स्वसंयम धारकर चारों गतियों को नाशने सल्लेखना धारण कर उपशम सहित वीतरागी तपस्या तपते हैं । 399- निकट भव्य पुरुष ही गुणस्थानी सीढ़ियाँ चढ़कर तिरते हैं । 400- निश्चय-व्यवहार धर्मी वीतरागी तपस्वी संघाचार्य ही अरहंत पद पाते हैं । 401- बनावटी अंकन है। अदम्य पुरुषार्थी ही सल्लेखना लेकर वीतरागी तपस्या पूर्ण करते हैं और (जंबूद्वीप पर) रत्नत्रयी प्रसिद्धि पाते तपस्वी बनकर पंचमगति की साधना करते हैं । 403- भवघट से तिरने वाले दो धर्म ध्यानों के स्वामी सल्लेखना धारकर अणुव्रती से उठकर वीतरागी तपस्वी बनते हैं । 404- सल्लेखनाधारी अंतहीन गठानों से पार होने बंधु द्वय जैसे पंच परमेष्ठी आराधना से आत्मस्थ हो पंचाचारी तप करते हैं 405- (अ) शुद्ध जीव निश्चय-व्यवहार धर्ममय होता है । (ब) पुरुषार्थी जीव वीतरागी तपी छत्रधारी होकर भी निरंतर पुरुषार्थ बढ़ाकर वीतराग तप करता है। जीव निश्चय–व्यवहार धर्मी होता है। 402 103 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004058
Book TitleSaindhav Puralipime Dishabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSneh Rani Jain
PublisherInt Digambar Jain Sanskrutik Parishad
Publication Year2003
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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